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अपश्चिम तीर्थंकर महावीर - 198 विचलित किये बिना यदि इन्द्र की सभा में जाता हूं तो मेरी वाणी भग्न होगी। अब और कोई उपाय भी नहीं दिखता जिससे ये मुनि विचलित हो जायें। तब यही श्रेयस्कर है कि इनको मृत्युधाम में पहुंचाकर ही जाऊँ। ऐसा चिन्तन किया।
18. उसने एक कालचक्र उत्पन्न किया। हजार भार लोहमय उस कालचक्र को देव ने वैसे ऊपर उठाया जैसे रावण ने कैलाश पर्वत को ऊपर उठाया और पूरी पृथ्वी को मानो व्याप्त कर रहा हो ऐसे उस कालचक्र को प्रभु के ऊपर फेंका। उछलती ज्वालाओं से सभी दिशाओं को विकराल करता हुआ वह चक्र समुद्र में आये बड़वानल की तरह प्रभु के ऊपर गिरा। उससे प्रभु का शरीर घुटनों प्रमाण पृथ्वी में धंस गया लेकिन प्रभु तो उसी समभाव में लीन रहे। उनका बाल भी बांका नहीं हुआ और संगम की मन की मन में ही रह गयी।
19. तब उसने अनुकूल उपसर्ग से भगवान को विचलित करना चाहा। वह एक दिव्य विमान में देव का रूप बनाकर आया और प्रभु से बोला हे महर्षि! मैं तुम्हारे उग्र तप, सत्त्व, पराक्रम से तथा प्राणों की परवाह किये बिना तपश्चर्या में संलग्न रहने से बहुत प्रसन्न हूं। अब ऐसे शरीर को कष्ट पहुंचाने वाले तप से क्या प्रयोजन? तुम्हें जो चाहिए वह मुझ से मांग लो। तुम जो चाहोगे, वहीं दूंगा। तुम कहो तो अभी जहां इच्छा मात्र से सारे मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं ऐसे स्वर्ग में ले जाऊँ अथवा सर्वकर्मरहित करके परमानन्द वाले मोक्ष में ले जाऊँ अथवा सम्पूर्ण राजा जिसके चरणों में झुकते हैं ऐसा शासनपति बनाऊँ लेकिन ऐसा कहने पर भी प्रभु जरा भी विचलित नहीं हुए तब उस संगम देव ने सोचा कि इसने मेरी शारी शक्तियों को निष्फल कर दिया है लेकिन कामदेव का बाण मैंने नहीं चलाया है। अब उसका प्रयोग कर इस तपस्वी का ध्यान स्वखलित करता हूं।
20. तब उस संगम ने छहों ऋतुओं की विकुर्वणा की और तुरन्त कामदेव की सेना रूप देवांगनाओं की विकुर्वणा की। उन देवांगनाओं ने प्रभु के सम्मुख आकर गान्धारादि रागों से संगीत प्रारम्भ किया। तदनन्तर मधुर वीणा वादन किया, फिर त्रिविध मृदंग ध्वनि से वायुमण्डल को गुंजायमान किया। वे देवांगनाएं प्रभु के समक्ष नयनाभिराम