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________________ अपश्चिम तीर्थंकर महावीर - 194 बनकर एक पुद्गल पर दृष्टि टिकाकर प्रबल ध्यान में संस्थित हैं। उनका इतना विशिष्ट पराक्रम है कि उनको इस ध्यान से कोई देव, असुर, यक्ष, राक्षस, तिर्यंच या मनुष्य जरा भी विचलित नहीं कर सकता है। इस प्रकार प्रभु की महिमा श्रवण कर सम्यकदृष्टि देव तो "धन्य है, धन्य है, धन्य है" बोल पड़े। प्रभु का यशोगान श्रवणकर एक अभव्य और प्रगाढ़ मिथ्यात्व वाला उसी सभा में बैठा शक्रेन्द्र का सामानिक देव- संगम ईर्ष्या की अग्नि से जल उठा। उसने अपनी भृकुटियों को ललाट पर चढ़ाया और अपने नेत्रों को लाल करते हुए, अधर कम्पाते हुए, क्रोध से वह शक्रेन्द्र को बोला- हे देवेन्द्र! आप श्रमण बने हुए मनुष्य की इतनी प्रशंसा करते हैं। आप जब भी किसी की प्रशंसा करते हैं तब आपको सत्-असत् का विवेक नहीं रहता। क्या वह साधु ध्यान में से देवों द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता? क्या उस साधु को देवों से भी ज्यादा शक्तिमान मान रहे हैं? देवता सुमेरु को एक भुजा से उठाकर फेंकने में समर्थ हैं। सम्पूर्ण पृथ्वी और पर्वतों को समुद्र में डुबाने में समर्थ हैं। सारे समुद्र का जल एक अंजलि में पान करने में सक्षम हैं । सम्पूर्ण पृथ्वी को एक अंगुली पर उठाने की शक्ति रखते हैं। ऐसे शक्तिसम्पन्न देवों के आगे उस मनुष्य की शक्ति ज्यादा है, जिससे देव उसे ध्यान से भी विचलित नहीं कर सकते? इस प्रकार कहकर संगम ने भूमि पर अपने हाथ-पैर पछाड़े, सभामंडप में से उठा। वह संगम क्रोधावेश से धमधमायामान करता हुआ प्रलयकाल की अग्नि जैसा और घने बादलों जैसे प्रतापवाला, रौद्र आकृति से अप्सराओं को भयभीत करता हुआ, विकट उरस्थल के आघात से ग्रहों को इकट्ठा करता हुआ पापिष्ठ, जहां प्रभु थे वहां आया । यद्यपि शक्रेन्द्र ने संगम का प्रभु वीर के पास जाना और कष्ट पहुंचाना जान लिया था तथापि भगवान् सहायतारहित कर्मनिर्जरा में लीन हैं, यह सोचकर वह प्रभु को उपसर्गमुक्त करने नहीं गया" | संगम ध्यानस्थ प्रभु को देखकर अकारण ही अधिक द्वेष करने लगा। तत्काल उस दुष्ट देव ने भयंकर पीड़ा पैदा करने वाली रज की वर्षा की। उस धूलि से प्रभु के सब अंगों को व्याप्त कर दिया। शरीर धूल से इतना भरा कि श्वासोश्वास लेना भी मुश्किल हो गया। परन्तु प्रभु तनिक मात्र भी विचलित नहीं हुए। तब
SR No.010152
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2005
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size10 MB
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