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________________ अपश्चिम तीर्थंकर महावीर - 193 श्रवणकर हर्षित हुए। नृपति को वृत्तान्त ज्ञात होने पर उसने बहुला दासी को दासीपन की जंजीरों से मुक्त किया। वहां से विहार कर भगवान अनार्यों से भरपूर अनार्य भूमि दृढ़ देश में आये। वहां पेढाल नामक ग्राम के समीप पेढाला नामक उद्यान में, पोलास नामक चैत्य में प्रभु ने तेला करके प्रवेश किया। वहां जंतुओं को कोई बाधा न हो इसलिए एक शिलातल पर घुटनोंपर्यन्त भुजाओं को लम्बी करके, शरीर को थोड़ा झुकाकर, चित्त को स्थिर कर, बिना पलक झपकाये, रूक्ष द्रव्य पर दृष्टि टिकाकर, एक रात्रिपर्यन्त महाप्रतिमा की आराधना करने लगे। कितना भीषण पराक्रम प्रभु का। जहां पांच मिनिट भी पलक झपकाए बिना रहना मुश्किल है वहां एक अहोरात्रि __ बिना पलक झपकाये साधना में संलग्न हैं। उस समय प्रथम देवलोक के इन्द्र शक्रेन्द्रजी अपनी सुधर्मा सभा में, चौरासी हजार सामानिक देवताओं, तेतीस त्रायस्त्रिशक देवों, तीन प्रकार की सभाओं, चार लोकपालों, असंख्य प्रकीर्णक देवों, जो चारों दिशाओं में दृढ़ परकोटा बनाये हुए थे ऐसे चौरासी हजार अंगरक्षकों, सेना से परिवृत सात सेनापतियों', आभियोगिक देव-देवियों के समूह और किल्विषी देवों के परिवार सहित बैठे हुए थे। दक्षिण लोकार्द्ध की रक्षा करने वाला वह इन्द्र, शक्र नामक सिहांसन" पर सभारूढ़ होकर नृत्य, गीत और तीन प्रकार के वाद्यों से विनोद करता हुआ समययापन कर रहा था। उन विनोद के क्षणों में भी शक्रेन्द्र को प्रभु वीर का स्मरण हो आया। तत्काल अवधिज्ञान का उपयोग लगाकर देखा और तुरन्त सिंहासन से नीचे उतरे, चरण पादुकाएं उतारी, उत्तरासंग किया, नीचे बैठे, बांये पैर को खड़ा करके, दाहिने पैर को जमीन पर टिका कर पृथ्वी पर मस्तक झुकाते हुए शक्रस्तव (नमोत्थुणं) से प्रभु की वन्दना की। तत्पश्चात् सिंहासन पर बैठे12 | शक्रेन्द्र का मन आस्था से संभृत हो गया। मन रोमांचक बन गया । ओह! कर्मयुद्ध में वीर प्रभु जैसा योद्धा दुष्कर है। इस प्रकार चिन्तन करते हुए उन्होंने अपनी सुधर्मा सभा में उपस्थित सभी देवों को सम्बोधित करके कहा- अरे देवो! मैं तुम्हें प्रभु वीर की अद्भुत रोमांचक महिमा सुनाता हूं। वे पांच समिति, तीन गुप्ति, पंच महाव्रत के धारी
SR No.010152
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2005
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size10 MB
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