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अपश्चिम तीर्थकर महावीर - 181 साधनाकाल का दशम वर्ष - विंशति अध्याय
__ अनार्य देश से प्रभु का आर्य देश में पदार्पण हो चुका है। वे अनार्य देश से विहार करके गोशालक के साथ सिद्धार्थपुर पधार गये हैं। वहां से कूर्मग्राम की तरफ विहार किया। मार्ग में एक तिल का पौधा गोशालक ने देखा, देखकर गोशालक के मन में जिज्ञासा हुई कि इस पौधे के बारे में भगवान से पूछना चाहिए। तब उसने प्रभु से पूछा-भगवन्! यह तिल का पौधा फलित होगा या नहीं?
भगवान्- ये तिल का पौधा विकसित होगा। इस पुष्प में सात जीव हैं जो यहां से च्यवकर एक फली में पैदा होंगे और सातों तिल के रूप में होंगे।
प्रभु के इन वचनों को सुनकर उनके वचनों को मिथ्या करने के लिए गोशालक ने उस तिल के पौधे को उखाड दिया । वीतराग-वाणी असत्य नहीं होती, इसी कारण एक व्यन्तर देव ने वहां मेघ वृष्टि की और किसी गाय के खुर से वह पौधा भूमि में दवा । उसमें समय आने पर नये अंकुर आये और पुष्प के सात जीव एक ही फली में सात तिल के रूप में पैदा हुए।
इधर पौधा उखाडने के पश्चात् गोशालक प्रभु के साथ विहार करके कूर्मग्राम आया। उस कूर्मग्राम में वैश्यायन बालतपरची आया हुआ था। यह बालतपस्वी कौन था, कैसे तपस्वी बना, इसका भी रोचक वृत्तान्त है।