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अपश्चिम तीर्थकर महावीर 165
भी समभावपूर्वक सहन करने की प्रतिज्ञा वाले प्रभु इन भीषण उपसर्गों से तनिक भी विचलित नहीं होते ।
जैसे शत्रु सेना को परास्त करने वाला महान योद्धा प्रबल सैन्य समूह में कवच पहन कर निर्भीक होकर चला जाता है एवं भीषण बाणों की परवाह न करते हुए भी शत्रुओं को परास्त करने में ही तत्पर रहता है, वैसे ही भगवान महावीर घोर उपसर्गों की परवाह न करते हुए कर्मशत्रुओं को निरन्तर परास्त कर रहे थे " । छः महीने तक इस प्रकार के असह्य कष्टों को सहन कर प्रभु अनार्य देश से निकल कर आर्य देश की तरफ पदाधान कर रहे थे।
भगवान विचरण करते हुए पूर्णकलश नामक अनार्य ग्राम के नजदीक पहुंचे तो लाट देश में जाने वाले दो चोरों ने प्रभु को सामने आता हुआ देखा। देखते ही चोरों ने चिन्तन किया, अरे यह नंग-धड़ंग मुंडित सिर वाला हमारे सामने आ रहा है। इसने बड़ा अपशकुन किया है । इसको मार देना चाहिए। ऐसा सोचकर शस्त्र द्वारा प्रभु को मारने के लिए उद्यत हुए। उसी समय शक्रेन्द्र वहां आया और भीषण वज्र का प्रहार उन चोरों पर किया जिससे वे मृत्यु को प्राप्त हुए। वहां से विहार कर भगवान भद्दिलपुर नगर पधारे। वहां चौमासी तप का प्रत्याख्यान कर प्रभु ने पंचम चातुर्मास किया । चातुर्मास पूर्ण होने पर चातुर्मासिक तप का नगर से बाहर पारणा कर वहां से विहार किया " |
संदर्भः साधनाकाल का पंचम वर्ष, अध्याय 15 1. (क) आवश्यक चूर्णि; जिनदास, पृ. 287
(ख) आवश्यक चूर्णि, मलयगिरि, पृ. 279
(ग) विशेषावश्यक भाष्य, 1913
एस देवज्जगरस कोऽवि पीढियावाहो छत्तधरो वा आसि । आवश्यक
2.
3.
481
मलयगिरी, पृ. 279
(क) विशेषावश्यक भाष्य, 1914
(ख) आवश्यक चूर्णि जिनदास, पृ. 287
ताहे सिद्धत्यो नपति अज्ज तुमए माणुसमांस खाइयव्वंति । आवश्यक चूर्णि जिनदास. पृ. 257
(क) आवश्यक चूर्णि जिनदास, पृ 288