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अपश्चिम तीर्थकर महावीर
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गरमी के प्रकोप से समूचा प्रदेश अग्निमय - सा प्रतीत होता था । वहां की गरमी को सहन करना महादुर्लभ था । ग्रीष्म की अधिकता के साथ-साथ वहां शीत का भी प्राबल्य सदैव विद्यमान रहता था । भयंकर शीत के थपेड़ों से संत्रस्त वहां की सर्दी को सहन करना कठिन था । वर्षा ऋतु में वहां घासादि की बहुलता होने से दंश-मशक भी बहुत पैदा होते थे । वे ऐसे तीक्ष्ण डंक लगाते थे कि जैसे मानो कोई बिच्छू डंक लगा रहा है ।
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वहां के लोग बड़े ही कठोर और निर्दयी थे । वे करुणारहित, दूसरों को त्रास पहुंचाने का जघन्य कृत्य करके बड़े ही प्रसन्न होते थे । दान देने की प्रवृत्ति बहुत कम थी। मानव का मानव के प्रति स्नेहासिक्त व्यवहार नहीं था । रूक्ष स्वभाव वाले वहां के लोगों में अनुकम्पादि की अल्पता थी । वहां तिलादि की खेती नहीं होने से तेल का एवं गायों की स्वल्पता के कारण घृतादि का अभाव -सा ही था। वहां के निवासी रूक्ष आहार ही करते थे । लाट देश ऋद्धि-सम्पन्न भी नहीं था । सामान्य स्थिति वाले लोगों का ही वहां पर निवास था । वहां की भूमि भी बड़ी ऊबड़-खाबड़ थी । इस प्रकार अनेक आपदाओं के स्थान लाट देश में सन्त-महापुरुषों का जाना अशक्य था ।
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उसी लाट देश में कर्म-क्षय करने के लिए प्रभु महावीर पधार गये । अनेक प्रकार की नुकीली घास और तीक्ष्ण कांटों के स्पर्श से प्रभु के पैर विंध जाते थे । ठण्डी - ठण्डी हवाएं सर सर करती हुई गात्र में सिहरन पैदा करती थी । शीत की अधिकता से शरीर एकदम शून्य - सा वन जाता लेकिन देह पर ममत्वत्यागी प्रभु शरीर की परवाहरहित थे । शीत ऋतु में क्षुधा भी अधिक सताती है । उस समय सब गरम-गरम खाना ही पसंद करते हैं। लेकिन भगवान ठण्डा - वासी जो भी मिलता, समभाव से खाकर तपश्चर्या में लीन रहते थे ।
गरमी भी उस प्रदेश में भयंकर थी। जब ग्रीष्म प्रारम्भ हुई तो डांस-मच्छरों का जबरदस्त प्रकोप था । अपने नुकीले तीक्ष्ण डंकों से वे डांस-मच्छर बार-बार प्रभु के गात्र के डंक लगाते थे । परन्तु महान वीर भगवान कभी भी उनसे खेद को प्राप्त नहीं होते थे ।
ग्रीष्म ऋतु में गरम हवा के थपेडे शरीर को तापित करते । चहुं