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अपश्चिम तीर्थंकर महावीर - 162 शरीर में प्रविष्ट सिद्धार्थ ने कहा- आज हमारे उपवास है। तब भूख से व्याकुल गोशालक अकेला ही भिक्षा के लिए गया । घूमता-घामता एक स्थान पर पहुंचा जहां गोठ के लिए खाना बन रहा था। वह बार-बार छुपकर देख रहा था कि रसोई तैयार हुई या नहीं। उस समय ग्राम में चोरों का विशेष भय था। लोग बड़े सतर्क थे। उन्होंने गोशालक को बार-बार छिपते हुए देखा तो सोचा कि यह चोर है। ऐसा सोचकर लोगों ने उसकी खूब पिटाई की। तब वह बड़ा कुपित हुआ और शाप दिया कि यदि मेरे धर्मगुरु का तप तेज है तो यह गोष्ठीमंडप जलकर राख हो जाये। इतना कहते ही प्रभुभक्त व्यन्तर देव आये और उन्होंने मण्डप जलाकर राख कर दिया।
प्रभु वहां से कायोत्सर्ग पालकर विहार करके कलंबुक नामक ग्राम में पधारे। उस ग्राम में मेघ और कालहस्ती नामक दो शैलपालक भाई रहते थे। उस समय कालहस्ती सेना लेकर चोरों को पकड़ने के लिए जा रहा था। उसने मार्ग में गोशालक सहित भगवान को आते हुए देखा तब उसने उनको ही चोर समझ लिया और प्रभु से पूछा- तुम कौन? मौनव्रतधारी भगवान कुछ भी नहीं बोले । गोशालक भी मौन धारण करता है। वह सोचता है कि देखू क्या होता है? तब उन दोनों को बांधकर भाई मेघ को सौंपा। मेघ पहले राजा सिद्धार्थ के यहां पर नौकर था। उसने प्रभु वीर को पहिचान लिया । तुरन्त बन्धन खोले और क्षमायाचना की। प्रभु वहां से चल दिये।
प्रभु ने अवधिज्ञान से आत्मालोचन करते विचार किया कि अभी तक मेरे बहुत कर्मों की निर्जरा करना अवशेष है। यहां मेरे कर्म तोड़ने में सहायक लोग मुझे कष्ट देते हैं तो अन्य मुझे पहचान कर छुड़ा देते हैं। इसलिए अब भीषण कर्मों को काटने के लिए अनार्य देश में जाना चाहिए। ऐसा विचार कर भीषण उपसर्गों का आमन्त्रण स्वीकार कर प्रभु लाट देश की तरफ पधार गये।
लाट देश अत्यन्त दुर्गम प्रदेश था। घने जंगलों से आवेष्टित झाड़ियों और पहाड़ियों से घिरा होने के कारण सामान्य साधक के लिए दुःसह था। लाट देश में ग्रीष्म का प्रबल प्रकोप रहता था। पत्थरों से टकरा कर आने वाली गरमी शरीर को झुलसाने वाली थी। भयंकर