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अपश्चिम तीर्थंकर महावीर 143
भगवान् महावीर द्वितीय चातुर्मासार्थ विराजमान थे ।
वह गोशालक भी जहां बुनकर की तन्तुशाला थी, जहां प्रभु विराजमान थे, वहां आया और एक कोने में वहीं रहने लगा ।
इधर प्रभु को एक माह व्यतीत हो गया । कायोत्सर्ग करते हुए लगातार एक महीने से भगवान् ध्यानस्थ बने थे । न आहार ग्रहण किया, न पानी। अब आवश्यकता महसूस हुई आहार की । प्रभु ने कायोत्सर्ग पाला और मासक्षपण के पारणे हेतु पधारे। नालन्दीपाड़ा में आहार हेतु भ्रमण करते हुए प्रभु विजय सेठ के घर पर पधारे । सेठ प्रभु को देखकर बड़ा हर्षित होता है। भक्तिपूर्वक प्रभु को प्रासुक आहार- पानी से प्रतिलाभित करता है। आकाश में अहोदानं - अहोदानं की ध्वनि होती है। पांच दिव्यों की देव वर्षा करते हैं। भगवान पारणा करके पुनः तन्तुशाला में पधार जाते हैं।
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गोशालक भगवान की इस प्रकार की महिमा को देखता है । सोचता है कि यह मुनि सामान्य मुनि नहीं । इसको जिस सेठ ने आहारादि दिया उसके यहां पर इतनी ऋद्धि हो गयी तब इनके साथ रहने पर तो मुझे कितना लाभ होगा! इसलिए मुझे भी चित्रपट से आजीविका छोड़कर इनका शिष्य बन जाना चाहिए। यह चिन्तन कर गोशालक भगवान् के पास आया और कहने लगा- महात्मन् ! इतने दिनों तक मैं आपके अतिशय को जान नहीं पाया, अब मैं आपका शिष्य बनना चाहता हूं”। प्रभु मौन बने रहे और गोशालक ने मौन को स्वीकृति मानकर प्रभु का शिष्यत्व अंगीकार कर लिया। वह चित्रपट की आजीविका छोड़कर गोचरी करने लगा । प्रभु के दूसरे मासक्षपण का समय आ गया। भगवान ने दूसरा पारणा आनन्द नामक गृहस्थ के यहां पर किया । पारणा करके प्रभु पुनः कायोत्सर्ग में विराजमान हो गये और गोशालक अहर्निश प्रभु के पास रहने लगा ।
तीसरा माह भी व्यतीत हुआ । प्रभु ने तृतीय मासक्षपण का पारणा सुनन्द नामक गृहस्थ के यहां पर सर्वकानगुण नामक आहार से किया । गोशालक भी भिक्षान्न से उदर-पोषण कर प्रभु की सेवा में रहने
लगा ।
वर्षावास अपनी पूर्ण समाप्ति पर आ गया । सुख- समाधिपूर्वक