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अपश्चिम तीर्थकर महावीर - 137 दोनों के मध्य गंगा नदी प्रवहमान थी। उस गंगा को पार करने हेतु भगवान नौका में विराजने के लिए नदी के पास पधारे।
नदी तट पर सिद्धदंत नाविक नौका लिए बैठा था। उसने प्रभु को अन्य मुसाफिरों के साथ अपनी नौका में विठाया। सबके बैठने के बाद नाविक ने ज्योंही नौका खेना प्रारम्भ किया त्यों ही दाहिनी ओर बैंठं उल्लू ने बोलना शुरू किया। तब उस नौका में यात्रा करने वाले खेमिल निमित्तज्ञ ने अन्य यात्रियों से कहा- “आज बड़ा अपशकुन हुआ है। यात्रा कुशलक्षेम से नहीं होगी। मारणान्तिक कष्ट आने वाला है लेकिन (प्रभु की तरफ इशारा करके कहा) यह जो महापुरुष बैठा है अपन सभी इसी की पुण्यवानी से बच जायेंगे।" वह ऐसा बोल ही रहा था कि पानी उछाल खाने लगा । कारण यह था कि वहां पर गंगा में सुदंष्ट्र नामक एक देव रहता था। उसने प्रभु को देखा और उसको प्रभु के साथ का पूर्वजन्म का बैर याद आ गया। वह देव चिन्तन करने लगा कि जब यह (संन्यासी) त्रिपृष्ठ वासुदेव था तब मैं सिंह था। मैं एक गुफा में रहता था। मैंने इसका कुछ भी अपराध नहीं किया। लेकिन इसने अपनी भुजाओं के पराक्रम के गर्व से मात्र कौतुक करने के मुझे मार डाला। आज यह मुझे मिल गया है । इस का इल चाहिए। इसे कतई नहीं छोड़ना चाहिए। एक के कार से विस्फारित नेत्र एवं फडकते अब दंड कर में जाकर नकर शनि करता है, "
ह है। रेत कोलार यह संवर्तक नामक महतुकी कि गिर जाते हैं। पदेत शान्तारमान -
जनमें साललगा! ना पानी भर र
स्त मार लामा देशल उन्नाले न साल र
दमन
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