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अपश्चिम तीर्थंकर महावीर
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साधनाकाल का द्वितीय वर्ष
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द्वादश अध्याय
संयम चर्या का प्रथम वर्ष व्यतीत हो गया है। भगवान् वर्षावास पूर्ण करके मोराक सन्निवेश पधार गये। वहां उद्यान में प्रतिमा धारण करके साधना में तल्लीन बन गये हैं। चहुं ओर शांति का साम्राज्य है । प्रदूषण की स्वल्प गंध भी नहीं है। ग्रामवासियों का कृषिप्रधान जीवन है । वे कृषि द्वारा ही अपना कार्य चलाते हैं। आज की भागमभाग और यांत्रिक जीवन जैसा वहां का तनावग्रस्त जीवन नहीं है। सीधे-सरल मोराकवासियों के मन में जब भविष्यफल जानने की इच्छा होती तो वे अच्छंदक नामक ज्योतिषी के यहां चले जाते और उससे भविष्यफल जानकर सन्तुष्टि का अनुभव करते ।
उस अच्छंदक का वर्चस्व देखकर एक दिन व्यन्तर देव सिद्धार्थ ने सोचा कि गुप्तपाप सेवन करने वाले अच्छंदक का भी इस ग्राम में इतना वर्चस्व है । इसके पापों को अब उजागर करने का समय आ गया है। मैं देवार्य की शरण लेकर इसके पापों को उजागर कर सकता हूं। ऐसा करने पर यह पापों का परित्याग भी कर देगा और देवार्य के त्याग की महिमा भी फैल जायेगी। इसी जिज्ञासा से एक दिन वह देव प्रभु के शरीर में प्रविष्ट हुआ। उस समय एक ग्वाला जा रहा था. देव ने उसे बुलाया और कहा. "अरे ग्वाल! तुम अभी घर से सौवीर' सहित अंगकर' का भोजन करके आये हो और अभी बैलों के रक्षण हेतु जा रहे हो। तुमने यहां आते हुए मार्ग में एक सर्प देखा है। आज रात्रि में तुझे एक स्वप्न भी आया था। उसमें तुम बहुत रोये हो। क्या मेरा यह कथन सत्य है?" ग्वाले ने कहा, "हां सत्य है ।" तब देव ने ग्वाले को विश्वास जमाने के लिए और भी बहुत सारी बातें कहीं। उन सब सत्य बातों को श्रवण कर ग्वाला विस्मयान्वित हो गया। ग्राम में जाकर ग्रामवासियों से कहा, "हमारे ग्राम के बाहर त्रिकालज्ञ देवार्य पधारे हैं। ये भूत, भविष्य की बातों को सत्य- सत्य बतलाते हैं और पैसा भी कुछ नही लेते। तुम्हें चलना है तो जल्दी चलो। ऐसा अवसर पुनः आने वाला नहीं है।" यह श्रवण कर सारे ग्रामवासी अक्षत पुष्पादि लेकर देवाधिदेव महावीर के पास आये। उसी समय पुनः सिद्धार्थ देव भगवान के
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