________________
अपश्चिम तीर्थंकर महावीर - 118 अहंकार मिटा नहीं। अब दूसरा प्रयास करता हूं। ऐसा चिन्तन कर विशाल हाथी का रूप बनाया। तीक्ष्ण दांतों से प्रभु के शरीर को काटा, अपने पांव तले प्रभु को रौंदा, लेकिन भगवान ने उफ तक नहीं किया। तत्पश्चात् यक्ष ने आकाश को छूने वाले विशाल पिशाच का रूप बनाया। तीक्ष्ण नखों और दांतों से प्रभु के पूरे शरीर को नोच डाला। तब भी भगवान ध्यानस्थ रहे। इतने उपसर्ग देने पर भी यक्ष का मन द्रवित नहीं हुआ। उसने क्रूरता से भयंकर विषैले उग्र दाढ़ों वाले सर्प का रूप बनाया और प्रभु के शरीर से लिपट गया। तीक्ष्ण दाढ़ों से शरीर काटने लगा पर त्रिशलातनय महावीर समभावपूर्वक उसे भी सहन कर गये। तब यक्ष की क्रूरता और बढ़ी, चिन्तन किया कि उपसर्ग देने से तो इस संन्यासी को कोई विचलन पैदा नहीं होता। इसे तो अब मृत्यु के द्वार पर पहुंचा देना चाहिए। यह सोचकर उस निर्दयी यक्ष ने अपनी शक्ति से भगवान के शरीर में आंख, कान, नाक, सिर, दांत, नख और पीठ इन सात स्थानों पर भयंकर वेदना उत्पन्न की4 | हेमचन्द्राचार्य के अनुसार शिर, नेत्र, मूत्राशय, नासिका, दांत, पीठ और नख- इन सात स्थानों में भयंकर वेदना उत्पन्न की। ऐसी दारुण वेदना, जिसके स्मरण मात्र से सिहरन पैदा हो जाती है, कंपकंपी छूट जाती है और एक वेदना के पैदा होने पर भी प्राणी छटपटाहट करता हुआ भयंकर वेदना को अनुभव कर मरण को प्राप्त कर लेता है, वहां सात-सात अंगों में भीषण वेदना, असह्य पीड़ा, फिर भी आत्मजयी प्रभु वीर घोर समभाव धारण किये हैं। पीड़ा में भी प्रसन्नता का अनुभव कर रहे हैं। ऐसे महान पराक्रमी महावीर की शक्ति को देखकर शूलपाणि अवाक् रह गया । ओह! मैं इतना क्रूर बनकर निरन्तर इस संन्यासी को कष्ट पहुंचा रहा हूं पर ये तो परम वीर बनकर तितिक्षा की पराकाष्ठा पर भी सफल बने हुए हैं। कौन हैं ये परम सहिष्णु! जिन्होंने ऐसी भीषण वेदना में उफ तक नहीं किया । मैं वेदना उत्पन्न करते-करते थक गया पर ये नहीं थके। ऐसा चिन्तन कर प्रभु के पास आकर चरणों में निवेदन किया- धन्य है आपकी तितिक्षा, मेरा अपराध क्षमा कीजिए। तभी प्रभु-सेवामें उपस्थित रहने वाला सिद्धार्थ देव आया और शूलपाणि से कहा, अरे! शूलपाणि! तूंने यह क्या किया? ये सामान्य साधक तो नहीं!