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अपश्चिम तीर्थंकर महावीर आकर धड़ाधड़ लोग मरने लगे। इतने लोग मर गये कि उनकी अस्थियों का ढेर हो गया। गांव में उथल-पुथल मच गयी । भयाक्रान्त होकर लोग गांव छोड़कर अन्यत्र जाने लगे, लेकिन वहां भी महामारी ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। तब भय से भक्तियुत् बनकर सभी ने चिन्तन किया कि ऐसा लगता है हमारे गांव में कोई दैवी प्रकोप हुआ है। अतः सभी को मिलकर उस देव को प्रसन्न करना चाहिए । इसी चिन्तनानुसार लोग एकत्रित हुए और हाथ जोड़कर आकाश की तरफ मुख करके कहने लगे- हे देवों ! असुरों! राक्षसों! किन्नरों ! प्रमादवश हमारी कोई गलती हो सकती है। आप तो महान हैं, आप हमारे अपराध को क्षमा कर दीजिए ।
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गांव वालों के इस उपक्रम को देखकर शूलपाणि यक्ष व्योमस्थित होकर बोला, ओह! अब गलती की क्षमा मांग रहे हो। जब मैं भूख-प्यास से व्याकुल बैल के रूप में तड़फ रहा था, मालिक ने मेरे चारे - पानी के लिए पैसे भी दे दिये थे तब तुम उन पैसों को हड़प गये । जरा-सी भी करुणा नहीं आई ! ऐसे क्रूर लोगों को ऐसी ही सजा मिलनी चाहिए । गांव वाले यक्ष की बात सुनकर अवाक् रह गये। अपने क्रूर कृत्य के प्रति पश्चात्ताप करते हुए बोले, हे देव! हमसे भयंकर अपराध हुआ है। अब तो आप जो कहें वह प्रायश्चित्त कर सकते हैं । शूलपाणि ने कहा, बस यही प्रायश्चित्त है, महामारी से मरते रहो। खुद की जान बचाने के लिए कितनी तत्परता और तुम्हारे कारण मेरी जान गयी उसका कोई अफसोस तक नहीं। तब लोगों ने कहा- यद्यपि हमारा अपराध भयंकर है तथापि आप तो परम दयालु हैं । हमें और कोई मार्ग बतलाइये, हम आपकी सेवा में निरन्तर तत्पर रहेंगे ।
तब शूलपाणि ने कहा- यद्यपि तुम्हारा यह जघन्य कृत्य माफ करने योग्य नहीं है तथापि मैं तुम्हें तभी माफ कर सकता हूं जब मरे हुए लोगों की अस्थियों का संचय करके उन पर मेरा देवालय बनाओ । वहां मेरी पूजा होनी चाहिए । तब यहां के ग्रामीणजनों ने तुरन्त इस बात को स्वीकार किया। अस्थि-संचय करके मन्दिर बनवाया । इन्द्रशर्मा नामक एक ब्राह्मण को यक्ष की पूजा के लिए पुजारी के रूप में रखा। अस्थियों पर मन्दिर बनने से, इस ग्राम की रक्षा होने से, इसका नाम