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अपश्चिम तीर्थकर महावीर
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उत्तरदायित्व का मैं कैसे निर्वहन करूं? इसे यहां से ले जाने में मैं स्वयं सक्षम नहीं हूं। तब क्या करना चाहिए? चिन्तन करते हुए एक उपाय ध्यान में आया। उसने ग्राम के व्यक्तियों को प्रमुख और कहा, बुलाया मेरा यह वृषभ मेरी धरोहर है, लेकिन इस स्थिति में इसको मैं अपने साथ ले जाने में समर्थ नहीं हूं। आप लोगों को मैं प्रचुर धन देता हूं। आप इसके चारे - पानी की व्यवस्था का ध्यान रखना, कमी मत रखना । तब ग्राम के प्रमुख व्यक्तियों ने कहा, ठीक है । धनदेव ने उन्हें बहुत सारी सम्पत्ति प्रदान की। फिर वृषभ को प्यार से सहला कर कहता है, वृषभ ! तुमने मुझ पर बहुत उपकार किया है, लेकिन मैं अभी तुम्हें ले जाने में सक्षम नहीं हूं। तुम्हारे जैसा स्वामिभक्त सेवक मुझे कहां मिल पायेगा | ओह...... यों कहते-कहते धनदेव के नयनों से आंसू छलक गये और वह साश्रु नयनों से वृषभ से विदा लेकर रवाना हो गया । ग्रामवासियों ने चिन्तन किया कि बैल तो मरने ही वाला है फिर क्यों चारे, पानी के लिए व्यर्थ पैसा गंवाया जावे। जो धन मिला है धनदेव से, उसका तो हम ही उपयोग कर लेंगे। इस प्रकार निर्दयता से युक्त होकर उन्होंने वृषभ को चारा तो दूर, पानी भी नहीं पिलाया । इधर वृषभ अत्यधिक परिश्रम से बहुत अधिक थका हुआ था । उसे भूख और प्यास सताने लगी। उसका शरीर अस्थि और चर्म का ढांचा मात्र रह गया । क्षुत्पिपासा व्याकुल होकर उसने चिन्तन किया, ओह! इस ग्राम के लोग कितने निर्दयी, क्रूर, पापिष्ठ और अधर्मी हैं। इनके मन में जरा भी करुणा नहीं है । मेरी दयनीय स्थिति देखकर इनके मन में जरा भी दया नहीं आई । दया करना तो दूर रहा, लेकिन जो चारे - पानी के पैसे मालिक दे गया था उसकी व्यवस्था भी इन्होंने नहीं की। इस प्रकार उसे ग्रामवासियों पर अत्यधिक क्रोध आने लगा । उसी क्रोध में अकाम निर्जरा कर मरण प्राप्त कर वह शूलपाणि नामक व्यन्तर देव चना । देवलोक में जन्म लेते ही तीन अज्ञान पैदा हुए। विभंगज्ञान से अपने पूर्वभव का वृत्तान्त जानकर उसे वहां के ग्रामवासियों पर भयंकर क्रोध आया और उसी क्रोध के वशीभूत होकर उसने ग्राम में महामारी फैलाई। ग्राम में इतनी जबरदस्त महामारी फैली कि उसकी चपेट में
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