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अपश्चिम तीर्थकर महावीर था। भोगियों के बीच भी महायोगी बने प्रभु का कमनीय गात्र, आकर्षक मुखमण्डल देखकर अनेक नवयुवतियां कामेच्छा से आकृष्ट बनकर एकान्त में ध्यानस्थ खड़े प्रभु के समीप आकर उनसे काम - याचना करती थीं पर भगवान ! वे.......... तो भोग के रोग का अतिक्रमण कर चुके थे। मधुर वाणी में काम - याचना करने वाली उन युवतियों के भावों की उपेक्षा कर मौन रहकर आत्मसाधना में तल्लीन रहते थे।
गृहस्थ के मकान में ठहरने पर प्रभु से कोई वार्तालाप करने को तत्पर होता तो भी वे मौन रहते थे । यदि कोई नहीं बोलने पर रुष्ट होता तो भगवान विहार कर अन्यत्र पधार जाते थे लेकिन व्यर्थ बातों में अपना एक भी क्षण नहीं गंवाते थे । 13
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आत्मज्योति प्रज्ज्वलित करने में तत्पर प्रभु सत्कार व असत्कार की अवस्था में समभाव रखकर विचरण कर रहे थे । मार्ग में कोई प्रभु का अभिवादन करता, तो कोई डंडे आदि से मारता, क्रूर बनकर बालों को खींचता या अंग-प्रत्यंगों को भंग करता, लेकिन प्रभु दोनों ही स्थितियों में समभाव रखकर हर्ष-शोक से विलग बनकर चल रहे थे । कोई मर्मभेदी वाक्बाणों से प्रभु को हताहत करने का प्रयास करता तो प्रभु आत्मतल्लीनता में तत्पर उन शब्दों से अपने-आपको जोड़ने का प्रयास नहीं करते । फलतः वे वाक्बाण निष्फल हो जाते।
विहारचर्या में भी परजीव - रक्षण की भावना प्रबल बनी रहती थी । एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के किसी प्राणी को किसी प्रकार का कष्ट न हो, उनके प्राणों का अतिपात न हो, इसका पूर्ण खयाल रखकर ही भगवान विचरण करते थे । हिंसा कर्मबन्ध का प्रमुख कारण है । यह एक ऐसा शस्त्र है जिससे अनन्त जन्म-मरण की प्रक्रिया चलती रहती है। स्वयं की हिंसा सब जीवों को सर्वदा दुःखदाई लगती है । अतः इस हिंसारूपी शस्त्र का प्रभु ने सर्वथा त्याग कर दिया था । झूठ, चोरी, मैथुन, परिग्रह आदि कर्म - आगमन के मुख्य स्रोत्र हैं— जानकर भगवान इनका त्याग कर ही विहरण करते थे। खान-पान में अहिंसा विशुद्धि का भगवान बड़ा ही विवेक रखते थे। जो भोजन जीवों की हिंसा करके साधु के निमित्त से बनाया है, ऐसे हिंसाजनित भोजन को कर्म-बन्धन का कारण जानकर प्रभु कतई ग्रहण नहीं करते