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करने के लिए लाढ़ पहुंचे तो अनार्यों की कोप- ज्वाला भड़क उठी । भगवान महावीर का अमृत उन्हें अच्छा नहीं लगता था। वे अहिंसा, सत्य, सदाचार और न्याय के पूर्ण विरोधी थे । दूसरे शब्दों में वे अनार्य थे । वे नहीं चाहते थे कि भगवान महावीर लाढ़ में चातुर्मास व्यतीत करें । पर भगवान तो भय से परे थे । उन्हें न कष्टों से भय था और न मृत्यु से । वह कष्टों, विघ्न-बाधाओं और मृत्यु को पराजित करने के लिए ही तो घूम रहे थे । उन्हें लाढ़ से कौन हटा सकता था ? वह लाढ़ में ही रुककर चातुर्मास व्यतीत करने लगे । पर लाढ़ के वे अनार्य क्यों मानने लगे ?
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लाढ़ के अनार्यों ने महावीर स्वामी को अपमानित करना प्रारम्भ कर दिया । ज्यों-ज्यों दिन बीतने लगे, वे अपने कुत्सित व्यवहारों से भगवान को डिगाने का प्रयत्न करने लगे । किन्तु उनके सभी अपमान बाण व्यर्थ सिद्ध हुए। न तो भगवान महावीर के मन में रोष पैदा हुआ, न वह रंचमात्र विचलित हुए। वह लाढ़ के अनार्यों के अपमानपूर्ण वचन और व्यवहार को उसी प्रकार सहन करते रहे, जिस प्रकार कोई सुकोमल पुष्पों की चोट को सहन करता है । पर क्या इससे अनार्य मौन हो गए ? नहीं, वे शीघ्र ही मौन होने वाले न थे । वे और भी आगे बढ़े। वे भगवान महावीर को शारीरिक यंत्रणाएं देने लगे । उन्होंने भगवान महावीर पर अस्त्र-शस्त्र फेंके, उन पर शिकारी कुत्ते छोड़े। पर वाह रे भगवान महावीर का धैर्य ! वह फिर भी न डिगे ।
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लाढ़ के अनार्यों ने भगवान महावीर को और भी बड़ी
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