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दाम बिना निर्धन दुखी, तृष्णावश धनवान । कहूं न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान ।। आप अकेलो अवतर, मरे अकेलो होय । यूं कबहूं इस जीव को, साथी सगा न कोय ।। जहां देह अपनी नहीं, वहां न अपनो कोय । पर संपति पर प्रगट ये पर हैं परिजन लोय ।। दिपै चामचादरमढ़ी, हाड़ पीजरा देह । भीतर या सम जगत मैं, अवर नहीं घिनगेह ।। मोहनींद के जोर, जगवासी घूमै सदा। कर्मचोर चहुं ओर, सरबस लूटें सुध नहीं ।। सतगुरु देय जगाय, मोहनींद जव उपशमै । तब कछु बनहिं उपाय, कर्मचोर आवत रुकै । ज्ञानदीपतपतेल घर, घर शोध भ्रम छोर । याविध बिन निकस नही, पैठे पूरब चोर ।। पंच महाव्रत संचरण, समिति पंच परकार । प्रबल पच इन्द्री-विजय, धार निर्जरा सार ।। चौदह राजु उतंग नभ, लोक पुरुप संठान । तामै जीव अनादितें, भरमत हैं बिन ज्ञान ।। धनकनकंचन राजसुख, सबहि सुलभकर जान । दुर्लभ है संसार में, एक जथारथ ज्ञान ।। जाचे सुरतरु देय सुख, चितत चितारैन । बिन जांचे विन चिंतये, धर्म सकल सुख दैन ।