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गीतों से उसे गुंजा दूंगी। इससे भी आगे बढ़कर वह मन-हीमन और भी बहुत-सी बातें सोच रही थीं, पर राजकुमार वर्द्धमान ने तो एक ही झटके में उनके स्वप्नों के स्वर्ण-महल को चकनाचूर कर दिया। फिर भी वह हताश न हुई, बोल उठी"तुम तो लोक-कल्याण में लगोगे बेटा, अधर्म और अज्ञान के अंधकार को दूर करोगे, पर इस राज्य का क्या होगा? कौन उसे संभालेगा?"
राजकुमार वर्द्धमान ने संयत स्वर में उत्तर दिया-"मां, यह सब नष्ट हो जाने वाली वस्तुएं हैं । जो नष्ट हो जाने वाली वस्तुएं हैं, हमें उनकी चिन्ता नहीं करनी चाहिए। हमें उनके पीछे नहीं भागना चाहिए।"
राजमाता त्रिशलादेवी साधारण माता नहीं थीं। यदि राजकुमार वर्द्धमान अद्वितीय पुत्र थे, तो वह भी अद्वितीय मातृपद पर प्रतिष्ठित थीं। उन्होंने तीर्थकर को जन्म देकर महान् गरिमा प्राप्त की थी। उनके हृदय में धर्म था, ज्ञान था। वह अपने वर्द्धमान को परिणय-सूत्र में अवश्य बांधना चाहती थीं, पर यह नहीं चाहती थीं कि राजकुमार वर्द्धमान जीवन की सच्ची राह को छोड़ें। अतः जब उन्होंने वर्द्धमान के मन में विवाह के प्रति विरक्ति देखी, तो वह मौन हो गईं । मौन ही नहीं हो गईं. उन्होंने हृदय से यह अनुभव किया कि राजकुमार जो कुछ कह रहे हैं, ठीक ही कह रहे हैं। फलतः राजकुमार वर्द्धमान विवाह-बंधन में नहीं बंधे।
सच तो यह है कि वह जन्मजात विरक्त थे। बाल्यावस्था से ही उनकी विरक्ति लोगों के सामने प्रकट होने लगी थी।
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