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राजनीतिक और सामाजिक महापुरुष आते हैं, मनुष्य के मन को हिलाकर चले जाते हैं। वे अपने सिद्धान्तों, वादों और मतों से मानव-समाज को जगा अवश्य देते हैं पर साथ ही वे वासनाओं, कामनाओं और स्पर्धाओं के सागर में ज्वार भी उत्पन्न करते हैं । फलतः समाज में 'द्वन्द्व' लिए राह बनती है, संघर्ष के लिए पथ प्रशस्त होता है। द्वन्द्वों और संघर्षों से भले ही भौतिक सुखों की उपलब्धि हो जाए, पर यह उपलब्धि स्थायी नहीं होती। द्वन्द्व और संघर्ष एक के पश्चात एक बराबर उठते ही रहते हैं। फलतः मनुष्यों को वह सुख और शान्ति नहीं मिलती, जिसकी उनके हृदय में प्यास रहती है । मनुष्य प्यासा का प्यासा ही रह जाता है। यही कारण है कि ऐसे मनुष्यों के जन्म-स्थान अधिक पवित्र नहीं समझे जाते । वे मनुष्यों के हृदय का आदर-सम्मान पाते हुए भी चिरस्थायी आदर-सम्मान के पात्र नहीं बनते।
पर वे महामानव जो कामनाओं से युद्ध करते हैं, जो मनुष्य के अन्तर्जगत् का शृंगार करते हैं, जहां भी जन्म लेते हैं, उस देश को, उस धरा को सुपावन बना देते हैं। दूसरे शब्दों में, यह कह सकते हैं कि वह देश और वह धरा एक तीर्थ बन जाती है, जहां उनका आविर्भाव होता है । एक सदी नहीं, दो सदी नहीं, युगों तक उस धरा को मिट्टी चन्दन की भांति महकती रहती है । कोटि-कोटि लोग उस धरा की मिट्टी में लोटकर अपने तन को सुपावन बनाते हैं, चन्दन की भांति अपने मस्तक पर लगाते हैं । अयोध्या, मथुरा, काशी, कुण्ड ग्राम, वैशाली और चम्पापुरी आदि ऐसे ही पवित्र स्थान हैं। इन स्थानों में