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बना दिया था।
एक लेखक ने तत्कालीन सामाजिक स्थितियों का चित्रण इन शब्दों में किया है- "ब्राह्मण-वर्ग हिंसा से भरे हुए यज्ञों को करने में ही मग्न था। यज्ञों की वेदिकाओं को पशुओं के रक्त से लाल कर दिया जाता था। मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए भी देवी-देवताओं को बलि दी जाती थी। वर्णाश्रम धर्म का अर्थ लोग अपने स्वार्थों को ही दृष्टि में रखकर लगाते थे । ब्राह्मण अपने को सबसे अधिक ऊंचा और पवित्र समझते । अपने को ऊंचा और पवित्र तो समझते ही थे, दूसरों को हेय समझते थे। जिन्हें हेय समझते थे, उन पर भांति-भांति के अत्याचार भी किया करते थे। स्त्रियों और शूद्रों का समाज में कोई स्थान न था। उन्हें लोग बहुत ही नीची दृष्टि से देखते थे। चाण्डालों का तो राह में चलना कठिन था। ब्राह्मणों और वैश्यों की स्त्रियां, यदि राह में चाण्डाल को देख लेती थीं तो वे इस बात को बड़ा अपशकुन मानतीं । चाण्डालों के दर्शन मात्र से वे नहाकर अपने को शुद्ध करती थीं । कभी-कभी चाण्डाल उच्च वर्गके मनुष्यों के सामने पड़ने के कारण पशुओं के समान पीटे जाते थे।"
एक अन्य लेखक ने तत्कालीन सामाजिक स्थिति का चित्रण इस प्रकार किया है-"दान और यज्ञों का प्रचार पापपूर्ण कर्मों को बढ़ावा दे रहा था। बलि-प्रथा का प्राबल्य था। ढोंग और पाखंड ने ज्ञान को ढांप लिया था। चारों ओर वासनाओं को ही आंघो चल रही थी। अन्याय और अधर्म का बोलबाला था। देश छोटे-छोटे राज्यों में बंटा हुआ था। देश
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