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की श्रद्धा के पात्र बने। ___ महावीर स्वामी की भगवत्ता अहंकार से रहित थी। वह महान होते हुए भी सबके समान ही थी। वह सर्वोच्च होते हुए भी सबको स्पर्श करती थी। उसमें आत्मा की व्यापकता थी, प्रशंसनीय समता थी। उसमें गरीब-अमीर, राजा-रंक सब डूब गए थे, वह एक ऐसा घरातल थी, जिसमें सभी रंग के, सभी वर्णों के, सभी जाति के मनुष्य समान-भाव से निवास करते थे। उसमें सबके लिए प्रेम था, स्नेह था, दया थी, सहानुभूति थी, ममता थी। अपनी इसी सम-भावना से वह महान थी, उसने सर्वेश्वर की उस अनन्तता को भी समझ लिया था, जिसमें सारे ब्रह्माण्ड, ग्रह और उपग्रह समाविष्ट हैं।
महाबीर स्वामी ने कभी अपने लिए किसी वस्तु की कामना नहीं की। वह जीवन के प्रथम चरण से लेकर अंत तक कामनाओं के ही जाल को तोड़ते रहे, छिन्न-भिन्न करते रहे। वह ऐहिक सुखों और भोगों को तजकर जीवन के पथ पर चले। जिस दुख को संसार छोड़कर चलता है, जिस दुख से जगत् भयभीत रहता है, उन्होंने सहर्ष उसे अंगीकार किया-अपने महान् पुरुषार्थ से उसे परास्त किया। कितनी ही बार संसार के दुखों ने दानव की भांति आगे बढ़कर उनकी गति को रोका, उनके पथ में शिलाएं बिछायीं, पर वह एक क्षण के लिए भी विमुख न हुए। वह अपने अजेय पौरुष का केतु हाथ में लेकर
आगे बढ़ते गए, त्रिविध तापों को पछाड़ते गए । धन्य था उनका पौरुष! वन्दनीय था उनका साहस ! उनके पौरुष और साहस ने ही तो उन्हें जन-जन के हृदय में महावीर के रूप में प्रतिष्ठित
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