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जैसे वृक्ष का पत्ता पतझड़ ऋतु कालिक रात्रि-समूह के बीत जाने के बाद पीला होकर गिर जाता है, वैसे ही मनुष्यों का जीवन भी आयु समाप्त होने पर सहसा नष्ट हो जाता है । इसलिए हे गौतम, क्षणमात्र भी प्रमाद न कर ।
जैसे कमल शरत्काल के निर्मल जल को भी नहीं छूता, पृथक् और अलिप्त रहता है, उसी प्रकार तू भी संसार से अपनी समस्त आसक्ति दूर कर, सब प्रकार के प्रेम-बन्धन से रहित हो जा । हे गौतम, क्षणमात्र भी प्रमाद न कर ।
राग और द्वेष- दोनों कर्म के बीज हैं, अतः मोह ही कर्म का जनक है । संसार में जन्म-मरण का मूल कर्म है और जन्ममरण ही एकमात्र दुख है ।
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