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विदेशों में जैन धर्म
प्रचार किया। सुमेर क्षेत्र के प्राचीन साहित्य मे जीवन्मुक्त जैनाचार्य उत्तमपीठ और उनके आत्ममार्ग का काफी विस्तार से वर्णन मिलता है।
इस समय तक हिट्टाइटार्य और ईरानार्य क्रमश पश्चिमोत्तरी और पूर्वोत्तरी सीमाओं पर आ गये थे। धीरे-धीरे पूरा पश्चिमी एशिया हिट्टाइटार्य, मित्तनार्य और कैसाइटार्य गणो के अधिकार में आ गयाथा। आत्म महायुग समाप्त हो गया था और सर्वत्र बर्वरगणा का साम्राज्य हो गया था। इनका एक वर्ग ब्रह्मार्यगण इन्द्र के सेनापतित्व में भारत की ओर युद्धरत हआ। भारतक्षेत्र की पश्चिमी सीमा पर ब्रह्मार्यगण और भारत जन के वीच देवासुर संग्राम हुआ। पहला महायुद्ध 1300 ई0 पूर्व से 1185 ईसा पूर्व के वीच लड़ा गया। दूसरा महायुद्ध 1200 ईसा पूर्व से 1400 ईसा पूर्व लडा गया जिसमे बहुत सी लडाइया समुद्र और नदियों पर भी लडी गई। देवासुर संग्राम का तीसरा महायुद्ध (आर्य-जैन महायुद्ध) 1140 ई० पूर्व से 1100 ई० पूर्व के बीच लडा गया जिसमे 1100 ईसा पूर्व मे आर्यगण उदीच्य (पश्चिम) भारत के सत्ताधारी ओर शासक बन गये। इस सुदीर्ध काल तक चले देवासुर (आर्य-जैन) सग्राम में लाखा जन धर्मी मारे गये और लाखो ही देश छोड कर सारे विश्व में पलायन कर गये जिनक और छोर का भी आज पता नहीं चलता।
यह है लगभग छह हजार वर्ष से भी पूर्व की जेन इतिहास की करुण कहानी। इसके बाद पार्श्वनाथ महावीर युग में जेन धर्म का पुररुत्थान हुआ और देश में जैन-बहुल सोलह महाजनपद स्थापित हुए। __ अपने सुदीर्घ इतिहास काल मे जेनधर्म भारत के अतिरिक्त ससार भर मे फैला। उत्तर से दक्षिण तक ओर पूर्व से पश्चिम तक प्राय प्रत्येक महाद्वीप और सभी देशो मे जैन धर्म का समरत विश्व मे व्यापक प्रसार हुआ जिसका यहाँ साकेतिक विवरण प्रस्तुत किया गया है।
मै श्री सेठीजी का अत्यन्त कृतज्ञ और आभारी हू, जिन्होंने मेरे इस स्वल्प शोधपरक प्रयास 'विदेशो मे जैन धर्म' का प्रकाशन कर मुझे देश, समाज और विद्वज्जनों की सेवा करने का अवसर दिया।
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