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________________ 46 विदेशों में जैन धर्म आश्चर्य यह है कि विश्वप्रसिद्ध जैन सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के महामात्य एव गुरु चाणक्य का उल्लेख न तो मेगस्थनीज ने किया है और न खारवेल ने ही। अध्याय 19 रोम और जैन धर्म रोम की कर्मकाड तथा इहलोक प्रधान जीवन शैली में भारतीय श्रमण विचारधारा जमी न रह सकी। रोम मे सन्यास का प्रवेश बाद मे यहूदियों और ईसाइयों के माध्यम से हुआ। सातवीं-छठी शती ईसा पूर्व में ईरान के माध्यम से यूनान के साथ सांस्कृतिक सम्बन्ध स्थापित होने के बाद से यूनान के दर्शन पर भारतीय श्रमण दर्शन का प्रभाव स्पष्टतया लक्षित होने लगा। साथ ही सन्यास की परम्परा भी वहां बल पकडती गई। जैन श्रमण भी सुदूर देशो तक विहार करते थे। ई. पूर्व सन् 25 मे पाण्ड्य के राजा ने अगस्टस सीजर के दरबार में दूत भेजे थे। उनके साथ श्रमण भी यूनान गए थे। श्री विशम्भरनाथ पांडे ने लिखा है - "इन (जैन) साधुओ के त्याग का प्रभाव यहूदी धर्मावलम्बियो पर विशेष रूप से पड़ा। इन आदर्शों का पालन करने वालो की, यहूदियों में एक खास जमात बन गई जो "ऐस्मिनी' कहलाती थी। इन लोगों ने यहूदी धर्म के कर्मकाडो का पालन त्याग दिया। ये बस्ती से दूर जंगलों में या पहाडो पर कुटी बनाकर रहते थे। जैन मुनियों की तरह अहिंसा को अपना खास धर्म मानते थे। उन्हे मांस खाने से बेहद परहेज था। वे कठोर और सयमी जीवन व्यतीत करते थे। पशुबलि का तीव्र विरोध करते थे और शारीरिक परिश्रम से ही जीवन यापन करते थे। वे अपरिग्रह के सिद्धान्त पर विश्वास करते थे। वे समस्त सम्पत्ति को समाज की सम्पत्ति समझते थे। मिश्र में इन्हीं तपस्वियों को "थेरापूते" कहा जाता था। "थेरापूते" का अर्थ "मौनी-अपरिग्रही है।" महावीर के महान व्यक्तित्व की प्रसिद्धि भी दूर-दूर के देशों तक फैली। भारत के अनेक भागों में उन्होंने विहार और प्रचार किया था। ईरान
SR No.010144
Book TitleVidesho me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1997
Total Pages113
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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