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तस्माता-नि-135 निश्चय-व्यवहार सम्प्रदर्शन - तत्त्वार्थसूत्र में तत्त्वावधान को सम्यग्दर्शन कहा है, लेकिन भाचार्य समन्तभद्र
बिलापोडमाई सम्बग्दसंवमस्मयम् ॥4॥ सत् देव, शास्त्र, गुरु का आठ अंग सहित, तीन मूढता और आठ मद रहित श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा है।
परवर्ती आचार्य भी इसी सरणि का अनुगमन करते हैं। यह व्यवहार सम्पग्दर्शन है। निश्चय सम्यग्दर्शन आत्मरूचि रूप है अथवा ज्ञेय और ज्ञाता इन दोनों की यथारूप प्रतीति सम्यग्दर्शन है - 'जैवसाततत्त्वतातीति-समवेन सम्यग्दर्शनपविण'।
देव-शास्त्र-गुरु का श्रद्धान रूप व्यवहार सम्यग्दर्शन और आत्मरुचि रूप सम्यग्दर्शन वस्तुतः तत्वार्थ का ही श्रद्धान है। परम वीतरागी भरहंत तद् प्ररूपित शास्त्र तदनुसार चर्या में निमग्न गुरु सम्यक्त्व में निमित्त हैं तो तस्वरुचि उपादान रूप में रहता है।
सम्यवान - रत्नत्रय का द्वितीय सोपान है सम्यग्ज्ञान वह प्रमाण रूप है । सम्यग्ज्ञान प्रमाणम् । तस्वार्थसूत्र में प्रमाण रूप इस ज्ञान को मति-श्रुत-अवधि-मनःपर्यय-केबल के भेद से विभाजित किया गया है । मत्यावरणकर्म के क्षयोपशम होने पर इन्द्रिय और मन की सहायता से अर्थों का मनन मतिज्ञान है। श्रुतावरण कर्म के क्षयोपशम से विशेष जानना श्रुतज्ञान है। इन दोनों को परोक्षज्ञान माना है। परोक्ष इसलिए कि इन शानों शस्वभावी आत्मा को स्वेतर इन्द्रिय तथा मन की अपेक्षा होती है। पराधीन होने के कारण परोक्ष है। अवधि, मन:पर्यय. केवलज्ञान ये तीनों प्रत्यक्ष हैं। प्रत्यक्ष के भी दो भेद हैं - देशप्रत्यक्ष तथा सर्वप्रत्यक्षा देशप्रत्यक्ष के भी दो भेद हैं - अवधि और मन:पर्यय । सर्वप्रत्यक्ष एक ही हैकेवलज्ञान । व्यवहित का प्रत्यक्ष अवधिनान, दूसरों के मनोगत का ज्ञान मन:पर्यय तथा सर्वावरण का क्षय होने पर केवलज्ञान होता है। अनन्तधर्मात्मक वस्तु का पूर्ण स्वरूप प्रमाण से अर्थात् सम्यग्ज्ञान से आता है और उसके एक-एक धर्म का ज्ञान कराने वाले ज्ञानांश को नय कहते हैं। वह नय द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक के भेद से दो और फिर अनेक प्रकार का है। वस्तुतः प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म होते हैं - 'अनन्तधर्मात्मकवस्तु'। उन सब धर्मों से संयुक्त अखण्ड वस्तु को ग्रहण करने वाला मान प्रमाण और एक-धर्म को जानने वाला ज्ञान नय । यह शान प्राप्ति ही योगीजन के तप का ध्येय होता है। शानपूर्वक भाचरण से कर्मबन्ध का अभाव होता है। निष्कर्षत: प्रमाण तथा नयों द्वारा जीवादितत्वों का समय विपर्यय तथा अनध्यवसाय रहित यथार्थबोध सम्यग्जान है।
सम्माचारित्र - दर्शन और जान के समान ही चारित्र भी भाव करण तथा कर्मव्युत्पत्तिक शब्द है। चर्यत इति पारिणम् के अनुसार सामान्यत: कर्मव्युत्पसिक समझा जाता है अर्थात् जो चर्यमाण हो वही चारित्र है। आचरण ही चारित्र है। संसरण का मूलकारण है - राग-देष । इसकी निवृति का साधन है - कृतसंकल्पी विवेकी पुरुष द्वारा कायिक, वाधिक बाह्य क्रियाओं से और माभ्यन्तर मानसिक वापार के विरक्त होकर स्वरूप स्थिति को प्राप्त करना चाहिए सम्यक्चारित्र
तत्त्वार्यसूल का मादि सूत्र जहाँ मोकमार्थ का प्रतिपादन करता है वहीं अन्तिम अध्याय का प्रथम सूत्र - 'मोहवासानदारनावराणायामनन्' वा बनाइलमापनि सम्यानकर्मविनोयो