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18 / तत्वार्थसूत्र-निकव
सत्यार्थवृत्ति
arer fear afण द्वारा रचित तस्वार्थभाष्य की टीका का नाम तत्वार्थभाष्यवृत्ति है। आप आठवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में इस धरा को आपने सीन - चारित्र एवं तप से सुशोभित कर रहे थे। आप सिद्धान्तमर्मज्ञ, विश्रुत एवं प्रतिभासम्पन थे। 'गन्धहस्ती' के नाम से आपकी इस वृत्ति के अनेकत्र उद्धरण प्राप्त होते हैं। यह वृहत्काय वृत्ति है। इनकी ही एक अन्य वृत्ति जो आचारांग पर है अनुपलब्ध है।
वृत्ति के अन्तः स्पर्श से ज्ञात होता है कि आप आगमिक परम्परा के प्रबल पक्षपाती थे, जो कि विशेषावश्यक भाष्य के रचयिता जिनभद्राणि क्षमाश्रमण द्वारा स्थापित जान पड़ती है। इसमें दार्शनिक एवं तार्किक चर्चाएं पर्याप्त हैं। विशेष इतना है कि यदि भाष्य का कोई विषय आगम के विरुद्ध जा रहा होता है तो उसकी आलोचना करते हुए आप आगमिक मान्यता की ही पुष्टि करते हैं। उससे विरुद्ध आप कुछ भी सह्य नहीं समझते। इसीलिए अनेक स्थलों पर आपने भाष्य के आगम विरुद्ध उल्लेखों को अपनी अज्ञानता बलताकर टाल दिया है। इनके उदाहरण दिये जा सकते हैं किन्तु विस्तारभय से मात्र एक ही दे पा रहे हैं। यथा
सूत्र ३/१३ के भाष्य में लिखा है- 'न कदाचिदस्मात् परतो जन्मतः संहरणतो वा चारणविद्याधरर्द्धिप्राप्ता अपि मनुष्या भूतपूर्वा भवन्ति भविष्यन्ति च ।' अन्यत्र समुद्घातोपपाताभ्यामत एव च मानुषोत्तर इत्युच्यते । यहाँ विद्याधर एवं चारणर्द्धि सम्पन्न मनुष्यों का मानुषोत्तर पर्वत के बाहर गमन करने का प्रसंग प्राप्त है। इस पर गणिजी ने निषेधपरक अर्थ करके भाष्य के विपरीत कथन किया है।
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वृत्ति की शैली प्रतिपद को स्पष्ट करने वाली, प्रमेयबहुल एवं उच्च दार्शनिक है। इससे ज्ञात होता है कि गणि जी ज्ञान कितना अगाध था। इसके साथ यह भी जानकारी मिल जाती है कि उनके सामने तत्त्वार्थसूत्र के अनेक पाठ एव अनेक टीकायें उपलब्ध थी। इसी के कारण वे अट्ठारह हजार श्लोक प्रमाण यह टीका निर्मित कर सके। इसके अन्त: परीक्षण से स्पष्ट होता है कि टीकाकार ने अपनी टीका के लेखन में सर्वार्थसिद्धि एवं तत्त्वार्थवार्तिक का पूरा उपयोग किया है। इस विषय में पं. सुखलाल संघवी का निम्न मत दृष्टव्य है- 'जो भाषा का प्रसाद, रचना की विशदता और अर्थ का पृथक्करण सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक में है, वह सिद्धसेनीय वृत्ति में नहीं है। इसके दो कारण हैं एक तो ग्रन्थकार का प्रकृतिभेद और दूसरा कारण पराश्रित रचना है। सर्वार्थसिद्धिकार और राजवार्तिककार सूत्रों पर अपना-अपना वक्तव्य स्वतंत्ररूप से ही कहते हैं। सिद्धसेन को भाष्य का शब्दश: अनुसरण करते हुए पराश्रित रूप 'चलना पड़ता है। इतना भेद होने पर भी समग्र रीति से सिद्धसेनीय वृत्ति का अवलोकन करते समय मन पर दो बातें तो अंकित होती ही हैं। उनमें पहली यह कि सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक की अपेक्षा सिद्धसेनीयवृत्ति की दार्शनिक योग्यता कम नही है। पद्धति भेद होने पर भी समष्टि रूप से इस वृत्ति में भी उक्त दो ग्रन्थों जितनी ही न्याय, वैशेषिक, सांख्ययोग और बौद्ध दर्शनों की चर्चा की विरासत है। और दूसरी बात यह है कि सिद्धसेन अपनी वृत्ति में दार्शनिक और तार्किक चर्चा करते हुए भी अन्त मे जिनभद्रगणि क्षreer की तरह भागमिक परम्परा का प्रबल रूप से स्थापन करते हैं ।''
चारलोकवार्तिक
तत्त्वार्थसूत्र के टीकाग्रन्थों में सबसे महत्त्वपूर्ण टीका है तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक । यह कुमारिल के
१. स्वार्थसूत्र, प्रस्तावना पृ. ४२,