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________________ 1 से हमें समझ में आता है। आचार्य महाराज ने तत्त्वार्थसूत्र के सूत्रों को खूब गहराई से समझा है । आचार्य महारा तार्थसूत्र में भी कुछ ऐसी सूचनाएं पाते हैं जिससे यह पता लगता है कि यह दोनों परम्पराओं में सेतु का कार्य करता तत्वार्थसून में उमास्वामी महाराज ने मूलतः धर्मध्यान के स्वामी के निरूपण का कोई सूत्र नहीं लिखा। ऐसा एक भी सूत्र नहीं है जो धर्मध्यान के स्वामी का निरूपण करता हो । उन्होंने आर्त्तध्यान और रौद्रध्यान के विषय में स्वामित्व निर्धारित करते हुये कहा है कि 'तदविरतवेशविरतप्रमसंवतानाम्' इसमें आर्त्तध्यान का भी स्वामित्व निर्धारित कर दिया और 'शुक्ले बाचे पूर्वविद:' इस सूत्र द्वारा 'पूर्वविद्' वालों को ही शुक्लध्यान का स्वामी बताया है। आचार्य महाराज इस सूत्र का बहुत अच्छा अर्थ करते हैं- 'शुक्ले चाचे पूर्वविदः ' इस सूत्र में जो 'च' शब्द है, इसके दो अर्थ, और निकलते हैं - पहला अर्थ तो यह है कि 'शुक्ले चाले पूर्वविदः' से 'शुक्ले चाचे अपूर्वविदः' अर्थ भी निकलना चाहिये क्योंकि निर्ग्रन्थ का जघन्य श्रुत जो है वह अष्ट प्रवचनमातृका बताया गया है। जो इस बात का परिचायक है कि कदाचित जो पूर्वविद् नहीं हैं जैसे शिवभूति मुनिराज थे, वे अल्प ज्ञानी होकर के भी भावश्रुत केवलित्व को प्राप्त कर सके थे। दूसरा अर्थ यह भी है कि श्रेणी में धर्मध्यान भी संभव है। यद्यपि किसी टीका में इसका उल्लेख नहीं है। केवल 'च' शब्द से ही आपके पास गुंजाइश है । क्योंकि समस्त टीकाकारों ने यह निर्धारित करके कि सप्तम गुणस्थान से आगे धर्मध्यान नहीं है आपके हाथों को पहले ही बाँध दिया है। कहाँ कमी रह गयी ? धर्मध्यान के स्वामी का उल्लेख क्यों नहीं किया आचार्य उमास्वामी ने ? एक सूत्र और बढ़ा देते 357 की जगह 358 हो जाते। उन्होंने नहीं लिखा इससे इस बात का पता चलता है कि उमास्वामी को किसी दूसरी परम्परा की भी सूचना रही होगी। इसलिये उनने उनको कहा कि इसको छोड़ो 'च' शब्द में लगा लो। टीकाकार जो अर्थ निकालना चाहें निकाल लें। लेकिन इसमें और गहराई से विचार करने की जरूरत है, यह बात तो तय है। इसी तरह धर्मध्यान के अन्यत्र जो दस भेद बताये गये हैं, तत्त्वार्थसूत्र में मात्र 4 भेद बताये गये हैं। ध्यान विषयक धारणाओं की चर्चा करते हुये पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यानों की भी चर्चा होनी चाहिये, जिसका समायोजन तत्त्वार्थसूत्र में मूलतः नहीं है और उन्हें 'आज्ञापायविपाकसंस्थानवित्रयाय धर्म्यम्' नामक धर्मध्यानों में किसमें समाहित किया जाये, इस बात का भी उल्लेख करना चाहिये । प्रश्न आया कि गृहस्थों के लिये सुख अथवा दुःख या प्रत्येक में कौन सा ध्यान रखना चाहिये। इस बात का भी हमें समायोजन करना चाहिये कि हमारी पूजा-पाठ व अन्य धार्मिक क्रियायें किस प्रकार के ध्यान में आयेंगी। यह प्रश्न जो लोक समूह से मेरे पास आया है, मैं बताना चाहता हूँ कि आज के युग में केवल धर्मध्यान है। आप हों या हम, हमारे द्वारा ध्यान होगा तो केवल धर्मध्यान होगा। इतना जान लें कि जितनी भी आपकी धार्मिक क्रियायें हैं वे सब धर्मध्यान में अन्तर्निहित हैं । एक विशेष बात और हमें ध्यान के विषय में स्पष्टतः समझनी चाहिये - जैन परम्परा के अनुसार केवल रीढ को करने का नाम ध्यान नहीं है। जैन परम्परा ध्यान का अर्थ चिन्तन- सातत्य से लेती है। जैन परम्परा के अनुसार ध्यान का अर्थ है चिन्तन की निरन्तरता और हमारा चिन्तन किसी न किसी पदार्थ से निरन्तर जुड़ा रहता है। जब हमारा चिंतन अशुभ से जुड़ता है तो उस ध्यान को हम अशुभध्यान कहते हैं और जब शुभ/इट से जुड़ता है तो धर्मध्यान के अन्तर्गत भाता है, शुभध्यान के अन्तर्गत आता है। 24 घण्टे हम ध्यानरत रहते हैं। अभी भी आप ध्यान कर रहे हैं क्योंकि आप
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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