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मति से दूसरी मति में जाने में जीव को अधिक से अधिक समय लगते हैं। इससे ज्यादा नहीं लगता। जैन परम्परा यह बताती है कि मापके एक शरीर का नाश हुआ तो आला अपने सूक्ष्म शरीर के माध्यम से अगले जन्म की स्थिति में जाली है और अपने पुरस्ने संस्कारों के बल पर नये शरीर के निर्माण की प्रक्रिवा प्रारम्भ कर देती है। यह जो भये शरीर के निर्माण की प्रक्रिया है वही हमारी बायोटेक्नालॉजी और जिनेटिक इंजीनियरिंग्स से जुड़ी है, जिसकी चर्चा मैं अभी आपसे करने का रहा हूँ। कुछ लोग ऐसा सोचते हैं, पर आप ऐसा मत सोच लेना कि यदि किसी की मृत्यु हो गई तो अपनी शेष आयु तक उसकी आत्मा भटकती है। कोई भी आत्मा इस तरह से भटकती नहीं है, वह किसी न किसी योनि में जाकर जन्म लेगी ही। जैसे उसके कर्म संस्कार होंगे उसे उसी प्रकार की पर्याय प्राप्त होगी। अब ये बात अलग है कि हमारी आयु समय पर नष्ट होती है या असमय में।
आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र के द्वितीय अध्याय के आखिरी सूत्र में कहा है- 'मीपपाविकचरमोत्तमदेहाउसस्पेयवर्षायुषः....' इससे यह स्पष्ट है कि हमारी आयु का क्षय समय-असमय दोनो में हो सकता है और इसके लिये आगम में पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध होते हैं। इसे कदलीयात मरण संज्ञा से अभिव्यक्त किया गया है। जो किसानी करते हैं, वे जानते होगे, केले के खेती में एक विशेषता होती है कि केले का वृक्ष केवल एक ही बार फल देता है और जैसे ही उसमें फल लगता है, उसके बगल में दूसरा पीका फूटता है और नया वृक्ष डेवलप हो जाता है। नये वृक्ष को पूरा रस मिले, पुराना वृक्ष रस ग्रहण न कर सके, नया पेड जल्दी विकसित हो इस भावना से किसान उस पुराने किन्तु हरे-भरे केले के वृक्ष को काट डालता है। जिस तरह केले के हरे-भरे वृक्ष को असमय में काट डाला जाता है, उसी तरह से जिसका हरा-भरा जीवन असमय में नष्ट हो जाता है, उस मरण का नाम ही कदलीघात मरण अथवा अकालमरण के नाम से जाना जाता है। एक उदाहरण से हम इसे समझते हैं। हमने पेट्रोमैक्स में तेल भरा। अगर उसकी व्यवस्था ठीक है तो बर्नर में जिस क्रम से तेल आयेगा, समझ लीजिये दो लीटर तेल छह घंटे तक चलेगा और यदि बर्नर लीक करने लगे तो वह तेल और अल्पसमय में भी जल सकता है। लेकिन अगर टैंक ही बर्ट हो जाय तो क्षणमात्र में सारा तेल जल सकता है। बस बन्धुओ ! ये टैंक कब बर्स्ट हो जाय और आयु का तेल जल जाय इसका भरोसा नहीं है, पर ध्यान रखना आदमी कभी भी मरे, अपनी आयु के तेल के नष्ट होने के बाद ही मरेगा। यह अकालमरण के विषय में जानने योग्य बाते हैं।
एक-दो अन्य सैद्धान्तिक बातों का भी यहाँ समायोजन हो जाना चाहिये, जो कि आचार्य वीरसेन जी के द्वारा प्राप्त हुई हैं। धवला में एक विशेष बात कही गई है
देवेहि बढाउगस्स कदलीपादो पत्ति। जो जीव देवपर्याय पर्याय में आया है, उसका अकालमरण नहीं होगा। अकाल मरण केवल उन मनुष्यों का होता है जो तिर्यचमति, मनुष्यगति अथवा नरकगति से आता है। स्वर्ग से आने वाले जीवों के पास ऐसी सामर्थ्य होती है कि उनके जीवन में कोई दुर्घटना न घटे। सवासूत्र के सन्दर्भ में गायोटेक्नालॉची, जेनेटिकाजीनियरी एवं जीवविज्ञान
हमें जैन परम्परा में जो शरीर विज्ञान बताया गया है, हमारे स्थूल शरीर के निर्माण की जो प्रक्रिया बताई गई है, उस प्रक्रिया पर अगर गहराई से ध्यान दें तो हमें ऐसा लगेगा कि जैनाचार्यों ने आज से हजारों वर्ष पूर्व जो कहा था, वही आज की जूलॉजी, बायोटेक्नालॉजी और जैनेटिक इंजीनियरी में पढ़ाया जा रहा है। अन्सर यह है कि पूर्व की प्ररूपणाओं को हम अपनी शब्दावली में व्यक्त करते हैं और वर्तमान वैज्ञानिकों की अपनी व्याख्या और विवेचनाएं हैं।