________________
m
प्रारम्भिक वक्तव्य
परम पूज्य मुनि श्री 108 प्रमाणसागर जी आज हम एक ऐसे ग्रन्य के विषय में विवेचना और विचार सुन रहे हैं, जिसके विषय में जितना भी सोचा और सुना जाए वह कम ही होगा। जैन साहित्य का भण्डार अत्यन्त विपुल है। एक से एक सैद्धान्तिक, आध्यात्मिक और आचारग्रन्थों का सृजन हुआ है, लेकिन सम्पूर्ण जैन वाङ्मय मे 'तस्वार्थसूत्र' ही ऐसा ग्रन्थ है, जिसके पाठ मात्र से भरे पेट में एक उपवास का फल मिलता है। यह इस ग्रन्थ की महत्ता या गरिमा का परिचायक है। कितना महान है यह ग्रन्थ कि जिसके वाचन मात्र से एक उपवास का फल मिलता है। आखिर इसे ऐसी महत्ता क्यों मिली? इसलिये कि यह अपने आप में 10 अध्यायो मे विभक्त और 357 सूत्रो मे निबद्ध इस लघुकाय ग्रन्थ मे गागर में सागर समाहित है। जैन वाङ्मय का ऐसा कोई अश नही बचा जिसने इस तत्त्वार्थसूत्र में स्थान न पाया हो। यह जैन वाङ्मय का सस्कृत में निबद्ध प्रथम सूत्रग्रन्थ है। सूत्र की शैली में निरूपित होने के कारण जैन सस्कृति मे इसका सर्वत्र और समान आदर होता रहा है, परम्परा हो या श्वेताम्बर परम्परा । इसके एक-एक अध्याय का अपना विशिष्ट प्रतिपाद्य है । वस्तुतः तत्त्वार्थसूत्र का मूल प्रतिपाद्य व्यक्ति को व्यक्ति से उठाकर उसके व्यक्तित्व को विकसित करते हुये प्रभुता की अनन्य ऊँचाई तक पहुँचाना है। हम अपने भीतर छिपी परमार्थशक्ति को कैसे अभिव्यक्त कर सके, यह सारा मार्ग तत्त्वार्थसूत्र मे उल्लिखित है। आत्मा से परमात्मा बनने का सारा मार्ग इस तत्त्वार्थसूत्र का मूल प्रतिपाद्य है। इसके साथ जो दूसरे विषय आये है, वे सन आनुषगिक है। आचार्य उमास्वामी का लक्ष्य ससार के बारे मे ज्यादा बताने का नही रहा है। उनका एक ही उद्देश्य है और वह है ससार से मुक्ति के मार्ग को प्रशस्त करना और इसी ख्याल से इस ग्रन्थ की शुरुआत ही उन्होने -
'सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि मोक्षमार्गः' सत्र से कही है और कहा है कि जो इन तीनो को धारण करके आत्मकल्याण की दिशा में आगे बढता है. सच्चे अर्थों मे वही मोक्ष का अधिकारी बन जाता है।' जीव के असाधारण भावों की विवेचना : आधुनिक सन्दर्भ में
पच भावो के विषय मे आलेख प्रस्तुत किया गया। आधुनिक परिवेश के विषय मे उसमे भावो की बात कही और बीच मे जो प्रश्न उठे उनका समाधान भी आपके समक्ष प्रस्तुत किया।
इन पाच भावो को हमे आधुनिक सन्दर्भ मे जोड़ने की जरूरत है और देखा जाय तो इन पचभावो में हमारा जैन मनोविज्ञान भी समाहित है। मनोविज्ञान के हिसाब से 14 मूलवृत्तियों के साथ औदायिक भावों की समायोजना की जानी चाहिए।
चारित्र की ही बात नहीं की गई, उसके आगे एक विशेषण लगाया गया है 'सम्यक् । अन्धी श्रद्धा को जैन परम्परा मे कोई स्थान नहीं दिया गया। गलत ज्ञान को, किताबी ज्ञान को, ऊपरी ज्ञान को जैन परम्परा में मान्यता नहीं दी गई और उल्टे-सीधे आचरण को भी जैन दर्शन में महत्व नहीं दिया गया। चाहे कोई कितनी भी हठयोग की साधना करे या तपस्या करे, व्यक्ति की तपस्या और व्यक्ति का मान तब ही सार्थक होता है जबकि वह 'सम्यक् विशेषण से विभूषित हो। 'सम्यक्त्वमण्डित हो, सच्ची श्रद्धा हो और ये सच्ची श्रद्धा न केवल प्रभु के प्रति अपितु अपने भीतर की आत्मा के प्रति भी