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मुनिश्री प्रमाणसागर जी : व्यक्तित्व एवं कृतित्व ......
मुनि श्री प्रमाणसागर जी जैनागम के ऐसे सत्यान्वेषी दिगम्बर सन्त हैं, जिनकी दैनिकचर्या का बहुभाग अध्ययन/ मनन/चिन्तन/शोधपरक सृजन के लिये समर्पित रहता है। 'जैनधर्म और दर्शन' आपकी प्रथम बहुचर्चित मौलिक कृत्ति ने जहाँ आपके लेखनीय कर्म को स्वयं के नाम की सार्थकता से जोड़ दिया है, वहीं 'जैनतत्त्वविद्या' ने आगम के समुन्दर को बूँद में समाहित करने का भागीरथी प्रयास किया है। इन दोनों कृतियों ने पूर्व की आध्यात्मिक संस्कृति को आधुनिक वैज्ञानिक संस्कृति से जोड़ने का एक अभिनव कार्य किया है।
मुनिश्री प्रमाणसागर जी महाराज, जैनागम के आलोक लोक के धुवनक्षत्र, सन्त शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के प्रज्ञावान शिष्यों में से एक हैं। अपनी अल्पवय में ज्ञान और वैराग्य के प्रशस्त पथानुगामी बन अन्तर्यात्रा का जो आत्मपुरुषार्थ सहेजा है, उससे आपके व्यक्तित्व की अनेक विधाएँ प्रस्फुटित हुई हैं।
____ आपकी चिन्तनशीलता, वैज्ञानिक एवं शोधपरक है - इसका ठोस प्रमाण आपकी कृति 'जैनतत्त्वविद्या' है, जिसमें आपने कर्मसिद्धान्त के विषय को करणानुयोग के अन्तर्गत न मानकर द्रव्यानुयोग का विषय माना है। इसके समर्थन में आपका वैज्ञानिक तथ्य तर्कपूर्ण है । कर्म पुद्गल द्रव्य है । अस्तु कर्म की समस्त प्रक्रियाएँ द्रव्यानुयोग के अन्तर्गत ली जानी चाहिये।
भाषाशैली : आपकी भाषा प्रवाहमयी एव सुगम है। कहीं भी आगमिक, पारिभाषिक शब्द दुरुह नहीं लगते । सरल, सुबोध और संक्षिप्तता आपकी लेखन-शैली की एक पहचान बन गयी है । विस्तृत विषयवस्तु को एक-दो वाक्यों में सुस्पष्ट कर देना मुनिश्री की विशेषता है। ऐसी प्रभावक लेखन-शैली का उद्भव तभी होता है, जब लेखक अपने चिन्तन को मंथन प्रक्रिया के द्वारा प्रांजल विचारों का नवनीत प्राप्त करने में सक्षम हो जाता है। उसके मानस में भ्रम और भ्रांतियों के लिये कोई जगह नहीं होती।
साहित्यिक कृतियाँ : आपकी एक महत्त्वपूर्ण कृति है 'जैनतत्त्वविद्या' । लेखक की यह ऐसी कृति है जो भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली द्वारा प्रशंसित की गई है। जिसमें अनेक आगम ग्रन्थों के सारभूत तत्त्वों को एक ग्रन्थ में समाहित कर गागर में सागर भरने की युक्ति चरितार्थ की गई है। इसका लेखक एक निष्काम दिगम्बर जैन साधु है, जो वास्तुविद् और ज्योतिषविद्या का ज्ञाता है। आपकी अन्य महत्त्वपूर्ण कृतियाँ 'जैनधर्म और दर्शन', 'दिव्य जीवन का द्वार', 'अन्तस की आँखें और ज्योतिर्मय जीवन' आदि हैं।
प्रवचन कला में निष्णात : लेखकीय कर्म के साथ ज्ञान की अभिव्यक्ति आपके धारावाही प्रवचन में देखने को मिलती है। वाणी में जहाँ ओजस्वी गुण है, वहीं सम्मोहकता का जादू भी है। श्रोता ऐसा खिंचा हुआ बैठा रहता है जैसे उसका हृदय ही बोल रहा हो । बोलते हुये मुख की मुस्कान सोने में सुहागा की उक्ति चरितार्थ करती है। प्रवचन में एक तत्त्व सर्व व्याप्त रहता है, वह है वशीकरण । आपके प्रवचन में शब्द सौष्ठव की बासंती छठा और विषय का सहज प्रस्तुतीकरण संगीत सा माधुर्य उत्पन्न कर देता है।
मुनिश्री के वात्सल्यमय व्यवहार और छोटे-बड़े सभी से सरलता और मुस्कान के साथ मिलना आपके व्यक्तित्व की एक ऐसी छवि है, जो आपमें सहज है। जबझान की तेजस्विता, महंकार के हिम को पिघलाकर गलित कर देती है,