________________
श्रावक संस्कार जीवन का आधार वास्तव में आज भौतिक साधनों की होड़ टी. तथा वी. एवं पाश्चात्य संस्कृति के कुप्रभाव से हम 'श्रावकसंस्कारों को पूर्णत: पालन नहीं कर पा रहे हैं। समय-समय पर हमारे आचार्य एवं गुरुवर हमे अपने संस्कारों के प्रति सजम करते रहते हैं। किन्तु हम अपने आलस्य एवं प्रमाद के कारण उन संस्कारों और आदर्शों को खोते जा रहे हैं या यूँ कहें कि हम उसके प्रति उदासीन है।
हमारे संस्कार जीवित रहे और हम अपना व अपने माध्यम से अन्य के संस्कारों को जीवित रख सकें, इसके लिये सर्वप्रथम हमें श्रावक बनना होगा । अर्थात् देवदर्शन, पानी छानकर पीना, रात्रि भोजन का त्याग ये तीन बातें हर उस व्यक्ति में होना जरूरी है, जो अपने को संस्कारित करना चाहता है तथा श्रावक बनना चाहता है। आज संस्कारों के नाम पर व्यक्ति पूजा तो कर लेता है किन्तु रात्रि भोजन का त्याग और पानी छानकर पीना मुश्किल हो जाता है। मान ले इन सबको भी कर ले तो क्या भक्ष्य-अभक्ष्य का विवेक कर पाता है, कषाय की मन्दता कर पाता है ? नहीं। सरलता ला पाता है ? नहीं। गुणों का विकास करने, सस्कारो की महत्ता समझने और सस्कारों के माध्यम से आपके जीवन का बौद्धिक व आध्यात्मिक विकास करने हमारे आचार्य वर मुनिवर गुरुवर, आर्यिकायें मातायें निरन्तर प्रयास करती रहती है और उसका प्रभाव आज समाज में देखा जा सकता है।
चातुर्मास का समय आया । आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज के परम शिष्य तपस्वी एवं ओजस्वी वक्ता 108 मुनि श्री प्रमाणसागर जी महाराज के चतुर्मास का मंगलयोग प्राप्त हुआ। सतना नगरी धन्य हो गई अहोभाग्य हमारा व सतना दिगम्बर जैन समाज का । वर्षायोग की स्थापना हुई और कार्यक्रमों की बौछार लग गई। मुनि श्री एक दिन भी बेकार नहीं खोना चाहते थे । समाज के निवेदन पर श्रमण संस्कृति के अनुरूप श्रावक धर्म के संस्कारों का पुनर्जागरण करने के लिये 10 दिन का ऐतिहासिक श्रावक संस्कार शिविर का आयोजन दिनांक 18 सितम्बर से 27 सितम्बर तक मुनि श्री के परम सानिध्य में किया गया।
परम सौभाग्य मेरा, कि इस शिविर का संयोजन करने का अवसर मुझे मिला । इसके पूर्व भी सन् 2000 में आर्यिकारत्न 105 पूर्णमति माता जी का वर्षायोग सतना में हुआ था तब भी संस्कार शिविर का आयोजन हुआ और संयोजक बनने का परम सौभाग्य मुझे ही प्राप्त हुआ था । संयोजक बनने का एक लाभ यह अवश्य मिलता है कि हम अपने गुरुओं के बहुत नजदीक हो जाते हैं और उनके माध्यम से हमें जो आत्मिक दृढ़ता मिलती है उसका मैं यहाँ बयान नहीं कर सकता । वह एक अद्वितीय उपलब्धि है और जीवन का टर्निंग प्वाइंट है या यू कहें कि सासारिक व्यवहार से अध्यात्म की तरफ का मोड़ है । जिसे आप यदि उस दिशा को मोड़े तो आत्मकल्याण निश्चित है। 'श्रावक-संस्कार शिविर' के आयोजन का जैसे ही लोगों को पता लगा सभी उत्साहित हुये और यह घोषणा हुई कि 10 दिन घर त्याग कर व्यापार आदि से मुक्त होकर मन्दिर जी में ही रहना पड़ेगा। लोगों के मन में थोड़ी सुगबुगाहट शुरू हुई। क्योकि व्यक्ति सांसारिक कार्यों को बन्द करके एकदम से धर्म में नहीं लगना चाहता यूं कहें कि जल्दी मन बन नहीं पाता लेकिन मुनिवर के प्रभाव से एवं भैया जी के प्रोत्साहन से लोगों के मन बदलने लगे और चर्चा होने लगी कुछ भी हो। 10 दिन व्यापार बन्द कर घर स्याग कर हम शिविरार्थी जरूर बनी पता नहीं ऐसा मौका फिर कब मिलता है । नवयुवकों ने जो कभी पूजन आदि नहीं करते थे,