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तत्वार्थस्व-निक / 235
किन्तु में ऐसा नहीं है। उसमें अनयारधर्म के अन्तर्गत केबल पुरुषोचित व्रत नियमों का कथन किया गया है। वहाँ स्त्रियोचित व्रत नियमों का भूल से भी नाम नहीं लिया गया। उदाहरणार्थ : नान्यपरीवह पुरुष पर ही चरितार्थ होता है, स्त्री पर नहीं। सभी पर घटित होने वाले इसके समकक्ष कोई परीषह वर्णित नहीं किया गया है । स्त्रीपरिषह भी ऐसा ही है। इसके साथ स्त्री पर घटित होने वाले पुरुषपरीषह का उल्लेख नहीं किया गया। शीत, उष्ण, देश-मशक परीषह भी सर्वत्र स्त्री के अनुरूप नहीं हैं। जहाँ आचारांगानुसार भिक्खुणियों के लिए सान्तरोत्तर प्रावरणीय की व्यवस्था हो, चार संघाटिकाओं को रखने की अनुमति हो, तीन-तीन सूती ऊनी कल्पों के प्रयोग की सुविधा दी गई है, वहाँ स्त्रियों पर शीत, उष्ण, दंश-मशक परीषह स्वप्न में भी घटित नहीं हो सकते। ब्रह्मचर्य महाव्रत की भावनाओं में पुरुषों के अनुरूप स्त्रीरागकथाश्रवण और तन्मनोहरांगनिरीक्षण के त्याग का वर्णन है। स्त्रियों के अनुरूप पुरुषरागकथा, पुरुषमनोहरांगत्याग का कथन नहीं है। अचौर्य महाव्रत की शून्यागारवास और विमोचितावास भावनाएँ भी स्त्रियों के विरुद्ध हैं । दिगम्बर आगम मूलाचार और श्वेताम्बर आगम आचारांग में आर्यिकाओं के लिए उपाश्रय में रहने का विधान किया गया है।
तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित वैयावृत तप के दश भेद आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज की सेवा स्त्री महाव्रतियों के अनुकूल नहीं हैं। पुलाक, बकुश आदि पाँच भेद मुनियों में हो बतलाए हैं, श्रणियों में नहीं। इससे सिद्ध होता है कि तत्त्वार्थसूत्रकार एकमात्र नग्न पुरुषशरीर को ही मोक्षसाधक लिंग मानकर चल रहे थे, इसलिये नग्नपुरुषविषयक ही परीषहों का उल्लेख किया है।
तत्त्वार्थसूत्र में भिक्षुणी, निर्ग्रन्थी, श्रमणी और आर्यिका इनमें से किसी भी शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। जबकि भाष्य में श्रमणी, निर्ग्रन्थी और प्रवर्तिनो शब्द प्रयुक्त हुए हैं। तीर्थकरप्रकृति के बन्ध के हेतुओं का निर्देश करने वाले सूत्र में तीर्थंकर शब्द का ही प्रयोग है 'तीर्थकरी' का नहीं। जबकि भाष्यकार एक अन्य सूत्र के भाष्य में 'तीर्थंकरी' शब्द प्रयुक्त करते हैं - ' एवं तीर्थकरीतीर्थे से सिद्धा अपि " इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र में अनगारधर्म के अन्तर्गत केवल पुरुष पर चरितार्थ होने वाले व्रत-नियमों का वर्णन किया जाना, स्त्री पर चरितार्थ होने वाले एक भी व्रत नियम का निर्देश नहीं मिलना यहाँ तक कि भिक्षुणी, निर्ग्रन्थी, श्रमणी और आर्यिका शब्द भी ग्रन्थ में कहीं दिखाई न देना इस बात का सुबूत है कि ग्रन्थ स्त्रीमुक्ति विरोधी ग्रन्थकार की कृति है। इसके विपरीत भाष्य स्त्रीमुक्ति समर्थक लेखनी से उद्भूत हुआ है। यह सूत्रकार और भाष्यकार के सम्प्रदाय भेद का अन्यतम प्रमाण है।
१.. तत्त्वार्थाधिगमभाव्य, 7/24