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-232/त्व-निय
ज्ञान न हो तो आदि के दो शुक्लध्यान नहीं हो सकते और शास्त्र यह भी कहता है कि स्त्रियों को दृष्टिवाद का अध्ययन का निषेध है, किन्तु स्त्रियों को केवलज्ञान तो होता ही है अत: उसका साधनभूत शुक्लध्यान भी होता है। इसीलिये यह मानना दुर्बार है कि उन्हें शब्द रूप से अध्ययन न होने पर भी धर्मध्यान के आधार पर वे क्षपकश्रेणी के विशिष्ट परिणाम तक पहुँचती है और वहाँ श्रुतज्ञानावरण कर्म का ऐसा क्षयोपशम हो जाता है कि जिससे शब्दतः न सही पदार्थ बौद्धरूप से द्वादशांग श्रुत की प्राप्ति हो जाती है। ऐसा मानने में कोई दोष नहीं है। "
किन्तु ऐसा मानने में अनेक दोष हैं। उदाहरणार्थ -
क. यदि क्षपकश्रेणी का विशिष्ट परिणाम होने पर श्रुतज्ञानावरण को विशिष्ट क्षयोपशम से स्त्री को शाब्दिक ज्ञान हुए बिना द्वादशांग का अर्थबोध हो जाता है तो पुरुष के लिये भी द्वादशांग के अध्ययन की अनिवार्यता असिद्ध हो जाती है, क्योंकि उसे भी इसी प्रकार अध्ययन के बिना ही द्वादशांग का अर्थावगम हो सकता है। इससे द्वादशांग का शब्दरूप में अस्तित्व और अध्ययन-अध्यापन निरर्थक होने का प्रसंग आता है, किन्तु वह निरर्थक नहीं माना जा सकता । अन्यथा भगवान उसे दिव्यध्वनि द्वारा प्रकट क्यों करते और गणधर उसका संकलन क्यों करते। इससे सिद्ध है कि उपर्युक्त कल्पना युक्तिसंगत न होने से यथार्थ नहीं है।
ख. दूसरी बात यह है कि 14 पूर्वो के अध्ययनों के बिना उनका अर्थबोध उन्हीं ऋषियों को होता है जिन्हें प्रज्ञाश्रमणत्वऋद्धि (लब्धि) प्राप्त हो जाती है।' किन्तु दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों आम्नायों के आगमो में स्त्रियों को सभी प्रकार की ऋद्धियों की प्राप्ति का निषेध किया गया है। यथा श्वेताम्बर ग्रन्थ प्रवचनसारोद्धार में कहा गया हैअरिहंतचनिक- के सव-बल-संभित्रे व चारणो-पुब्वा । गणहर - पुलाय आहरगं च न हु भविय महिलाणं ॥
अर्थात् भव्य स्त्रियाँ तीर्थकर चक्रवर्ती, नारायण, बलभद्र, संभिन्नश्रोतृत्व, चारणऋद्धि, चौदहपूर्वित्व, गणधर, पुलाक तथा आहारकऋद्धि ये दस अवस्थायें प्राप्त नहीं कर सकती ।
यापनीय आचार्य पात्यकीर्ति शाकटायन कहते हैं कि यद्यपि स्त्रियों में 'वाद' आदि लब्धियाँ नहीं होती, वे जिनकल्प और मन:पर्ययज्ञान भी प्राप्त नहीं कर सकतीं, तो भी उनके मोक्ष का भाव नहीं है यदि 'वाद' आदि लब्धियों के
१. श्रेणिपरिणती सु क्षपक श्रेणिपरिणामे पुनः वेदमोहनीयक्षयोत्तरकालं कालगर्भवत्, काले प्रौढेऋतु प्रवृत्युचिते उदरमत्व इव भावतो द्वादशांगार्योपयोगरूपात् न तु शब्दतोऽपि, भावः सत्ता द्वादशांगस्य, अविरुद्धो न दोषवान् । इदमत्र हृदयमस्ति अस्ति हि स्त्रीणामपि प्रकृतयुक्त्या केवलप्राप्तिः, शुक्लध्यानसाध्यं च तत् । ध्यानान्तारिकायां शुक्लध्यानाद्यमेद्वयावसान उत्तरभेदद्वयानारम्भरूपायां वर्तमानस्य केवलमुत्पद्ये इति वचनात् प्रामाण्यात् । न च पूर्वगतमन्तरेण शुक्लध्यानाद्यमादौ स्तः आद्ये पूर्वविदः (तत्त्वार्थ 7 / 37 ) इति वचनात्, दृष्टिवादश्च न स्त्रीणामिति वचनात्, अतस्तदर्थोपयोगरूपः क्षपकश्रेणिपरिणतौ स्त्रीणां द्वादशांगभावः क्षयोपशमविशेषादुपदिष्ट इति । - वही पंजिकाटीका, पृ. 406
२. पयडीए सुदणाणावरणाए वीरयंतराए ।
उक्कस्तक्वसमे उप्पज्जर पण्णसमणद्धी ॥
पण्णसवणाद्धिजुदो चोदापुब्बी विसयहुमत्तं ।
सव्वं हि सुदं जादि अायणो वि सिद्धमेणा ॥ तिलोयपण्णत्ती, 4 / 10, 17-18
३. प्रवचनसारोद्धार गाया, 1506, पृ. 325