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________________ तत्वार्थसून निकy 213 आत्मा की ओर आकर्षित होती हैं और आत्मप्रदेशों के साथ एकमेक होकर बन्न जाती हैं। आसक्ति कार्मवर्मणाएँ hara के कारण आत्मप्रदेशों के साथ बन्ध जाती हैं। कषायों के सद्भाव में आसव और बन्ध दोनों क्रियायें साथ-साथ होती हैं। अतः आसव निरोध के साथ बन्धनिरोध भी अभिप्रेत है। इस आसव-बन्ध की प्रक्रिया के रुक जाने को ही संबर कहते हैं। जैसे-जैसे संवर होता है वैसे-वैसे आत्मचेतना को मलिन करने वाली कषाय भी क्षीण होती जाती है और कर्मों के ग्रहण का विच्छेद होता जाता है। इस प्रकार क्रमश: आसव-बन्ध कम होता जाता है और संबर- निर्जरा बढ़ती जाती । जिससे आत्मचेतना अधिक निर्मल होती जाती है। सामान्य तर्क से ही यह बात समझ में आ जाती है कि जिन कारणों से कर्मों का आस्रव-बन्ध होता है उनके दूर हो जाने पर अथवा उनसे विपरीत कारणों से संवर- निर्जरा होती है। नूतन कर्मों के ग्रहण का धीरे-धीरे बिच्छेद होता जाता है और पूर्वसंचित कर्मों की निर्जरा होती जाती है। इस प्रक्रिया से सम्पूर्ण कर्मों का निःशेष तथा क्षय हो जाने पर आत्मा पूर्णत: कर्ममुक्त अथवा कषायमुक्त हो जाती है अर्थात् मोक्ष को प्राप्त हो जाती है। तत्त्वार्थसूत्रकार ने आस्रव-बन्ध के कारणों में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय एव योग बताए हैं। सर्वप्रथम मिथ्यात्व कारण दूर होता है। मिथ्यात्व के दूर हो जाने पर मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, नरकायु, नरकगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, हुण्डक संस्थान, असंप्राप्तासृपाटिका संहनन, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आतप, स्थावर, सूक्ष्म, , अपर्याप्तक और साधारणशरीर ये सोलह प्रकृति रूप कर्मों का संवर हो जाता है। तत्त्व श्रद्धान के द्वारा सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाता है तब अनन्तानुबन्धी कषाय चौकडी का अभाव हो जाता है तब चतुर्थ गुणस्थान में 25 प्रकृतियों का और संवर हो जाता है । अर्थात् चतुर्थ गुणस्थान में सोलह व पच्चीस कुल 41 प्रकृतियों का आम्रव-बन्ध नहीं होता । आगे देशसयम ग्रहण कर लेने पर अप्रत्याख्यानावरण कषाय चौकडी का अनुदय हो जाता है और दम कर्म प्रकृतियों का संवर हो जाता है। आगे प्रत्याख्यानावरण कषाय चौकडी का अभाव होने पर सकलसयम धारण कर निर्ग्रन्थ दिगम्बर अवस्था प्राप्त हो जाती है और इस पद से अन्य प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया व लोभ इन चार कर्म प्रकृतियों का संघर हो जाता है। पुनः प्रमाद के अभाव से सप्तम अप्रमत्त गुणस्थान में 6 कर्म प्रकृतियों का संवर हो जाता है। आगे श्रेणी में तीव्र कषाय का उत्तरोत्तर अभाव होने पर विवक्षित भाग से आगे क्रमश: दो, तीन एवं चार प्रकृतियों का सवर हो जाता है। इसी प्रकार मध्यम कषाय का भी अभाव होने पर क्रोध, मान और माया संज्वलनकषाय का सवर होता है। आगे सूक्ष्म लोभ का भी अभाव होने पर पाच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, पांच अन्तराय, यश: कीर्ति और उच्चगोत्र का भी संवर हो जाता है। केवल योग के निमित्त से वेदनीय का आस्रव 11 वे, 12 वें और 13 वें गुणस्थान मे होता है। योग का अभाव होने पर अयोग केवली को पूर्ण संवर हो जाता है। संवर आत्मा में नए दोष और उनके कारणों को उत्पन्न नहीं होने देने का मार्ग है। संवर के साथ संचित कर्मों को तप के द्वारा निर्जरित करने पर मुक्तिलाभ होता है। अतः आत्मा चेतना के निर्मलीकरण का उपाय संवर- निर्जरा ही है। संवर के कारणों का वर्णन करते हुए दूसरे सूत्र में आचार्य उमास्वामी महाराज ने कहा है कि वह संवर गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र से होता है। मन, वचन, काय की क्रिया को समीचीन प्रकार से निग्रह करने को गुप्ति कहते हैं। मन, वचन, काय की प्रवृत्ति का निरोध होने पर संबर स्वतः सिद्ध है। गुप्ति में नहीं रह पाने पर मन-वचन-काय की हिंसारहित यत्नाचार पूर्वक प्रवृत्ति करना समिति है । सस्वगीर्या, सम्यग्भाषा, 'सम्ययेषणा, सम्बादाननिक्षेप और सम्यगुत्सर्ग इस प्रकार समिति के पांच भेद हैं । इस प्रकार यत्नाचार पूर्वक प्रवृत्ति करने वाले के नवम रूप परिणामों के निमित्त से वो कर्मों का आसव होता है उसका संकर हो जाता है। तीसरा संवर का कारण धर्म
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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