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204 / तस्वार्थसूत्र निकष
ध्यान की विवेचना
पं. शिवचरनलाल जैन
बाई तपः परमदुश्चरमाचरस्त्वं, अभ्यन्तरस्य तपसो परिबृंहणार्थम् । ध्यानं निरस्य कलुषइयमुत्तरस्मिन्, ध्यानद्वये ववृतिवेऽतिशयोपपत्रे | बृ. स्तो.
जिनागम द्वारा प्ररूपित सात तत्त्वों में लक्ष्य रूप मोक्ष की प्राप्ति हेतु संवर एवं निर्जरा की उपादेयता वर्णित की गई है। इसके कारणभूत तप का साधना में बहुत महत्त्व है। अविपाक निर्जरा जो कि मोक्ष का नियामक कारण है, उसके लिये ही तपश्चरण के बाह्य एवं अन्तरंग रूपों का विधान है। चारित्र, संयम, प्रव्रज्या, समिति, गुप्ति व परीषहजय आदि इसी के भेद विहित हैं। इनके बिना मोक्षमार्ग नहीं है। उपर्युक्त उपादानों के समस्त परिवेश में ध्यान तप सर्वोत्कृष्ट हैं। ध्यान के आर्स, रौद्र, धर्म्य तथा शुक्ल' - इन चार भेदों में प्रथम दो ससार के कारण हैं।' धर्म्य और शुक्ल मोक्ष के कारण हैं। प्रस्तुत आलेख में मोक्ष हेतु ध्यानविषयक चर्चा अपेक्षित है।
आध्यात्मिक क्षेत्र में ध्यान विषयक विभिन्न मान्यताएँ दृष्टिगोचर होती हैं। जिनागम के सारभूत सूत्र शैली द्वारा वर्णन स्वरूप सत्त्वार्थसूत्र नामक ग्रन्थराज है। इसके प्रणेता आचार्य उमास्वामी ने वर्तमान में उपलब्ध प्रथम संस्कृतभाषामय रचना स्वरूप अत्यन्त बुद्धि-कौशल से मात्र 357 सूत्रों एवं 10 अध्यायों के सुगठित स्वरूप में मोक्ष तथा मोक्षमार्ग का वर्णन किया है। इसमें ध्यान विषयक प्ररूपण नवें अध्याय में संवर- निर्जरा तत्त्व के प्रतिपादन के अन्तर्गत अवलोकनीय है। यहाँ हम ध्यान के स्वरूप का निर्णय कर तद्विषयक मान्यताओं के समायोजन का प्रयास करेंगे। यह बिन्दुसार प्रकाशनीय है।
1. आचार्य गृद्धपिच्छ ( उमास्वामी) ने ध्यान का लक्षण निम्न प्रकार किया है - “उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात् । - तत्त्वार्थसूत्र 9/27
अर्थात् उत्तम संहनन वाले का अन्तर्मुहूर्त तक एकाग्रचिन्तानिरोध ध्यान है ।
उक्त परिभाषा के विषय में मुख्य तीन बातें दृष्टव्य हैं -
१. आशुक्लानि - तस्वार्थसूत्र 9/28
२. परे मोक्षहेतू - वही 9/29
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*are संरक्षक एवं पूर्व अध्यक्ष, तीर्थकर ऋषभदेव जैन विद्वत् महासंघ पूर्व कोषाध्यक्ष अ. भा. वि. जैन शास्त्रि परिषद्, सीताराम कार्केट, मैनपुरी - 205001