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202 / तत्कार्य-निवाय
वाचार्य उमास्वामी में रौद्रध्यान की इस परिभाषा में रौद्रध्यान के भी चार भेद किये हैं, जिनका उत्तरवर्ती साहित्य में हिसानन्द, मृषानन्द, चौर्यानिन्द और परिग्रहानन्द - ये नाम मिलते हैं।
इस तरह आर्त और रौद्र ये दो अप्रशस्त (अशुभ) ध्यान हैं। इनमें आर्तध्यान का फल तिर्यंचगति तथा रौद्रध्यान का फल नरकगति है ।
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धर्म अर्थात् वस्तु स्वभाव से युक्त को धर्म्य कहते हैं । अतः 'आज्ञापायविपाकसंस्थानविजयाय धर्म्यम्' || 36 || अर्थात् आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय- ये धर्म्यध्यान के चार भेद हैं। यहाँ विचय से तात्पर्य विचारणा है ।
1. सर्वज्ञ प्रणीत आगम की आज्ञा (प्रमाणता) से वस्तु के श्रद्धान का विचार करना आज्ञाविचय है । 2. संसारी जीवों के दुःख और मिथ्यात्व को देखकर उसके छूटने के उपाय का चिन्तन अपायविचय है।
3. कर्मफल के उदय का विचार करना विपाकविचय है।
4. लोक के आकार का विचार करना संस्थान विषय धर्मध्यान है ।
ज्ञानार्णव (पृ. 361) आदि परवर्ती साहित्य में इसी सस्थान विचय नामक चतुर्थ धर्मध्यान के पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्य और रूपातीत - इन चार भेदों का प्रतिपादन मिलता है। इसे हम ध्यान के आधार क्षेत्र का विकास कह सकते हैं । इनका विवेचन इस प्रकार है -
1. पिण्डस्थ - पिण्ड अर्थात् शरीर स्थित आत्मा का चिन्तन करना अथवा पिण्ड के आलम्बन से होने वाली एकाग्रता पिण्डस्यध्यान है।
2. पदस्थ पद अर्थात् शब्दों का समूह। पवित्र ग्रन्थों के अक्षर स्वरूप पदों के आलम्बन से होने वाली एकाग्रता को पदस्थध्यान कहते हैं।
3. रूपस्य - रूप अर्थात् महंत आदि किसी भी आकार के आलम्बन मे होने वाली एकाग्रता रूपस्थ ध्यान है। 4. स्पातीत - यह निरालम्बन स्वरूप होता है ।
गुणस्थानों की दृष्टि से यह धर्मध्यान चतुर्थ अविरत, पंचम देशविरत, छठा प्रमत्तसयत और सप्तम अप्रमत्तसयतइन चार गुणस्थानवर्ती जीवों के सम्भव है।
१. शुक्लान
आचार्य उमास्वामी ने शुक्लध्यान का विवेचन इस ध्यान प्रकरण में सांगोपाग, वह भी सर्वाधिक आठ सूत्रों में किया है। सर्वार्थसिद्धि (9/28) के अनुसार 'शुचिगुणयोगच्छुक्लम्' अर्थात् जिसमें शुचि गुण (कषायों व उपशम या क्षय) 'को सम्बन्ध हो उसे शुक्ल कहते हैं। आत्मा के शुचिगुण के सम्बन्ध से जो ध्यान होता है, वह शुक्लध्यान है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा (481) में कहा है -
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गुणा सुविसुद्धा, उपसम खमच अता कम्मार्थ । सुक्का से सुबकं धणदे जाणं ॥
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