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________________ अपहरण करना, दूसरों के शोध की कृति को अपनी बताकर प्रशंसा कराना, नीचता के योतक है। ऐसे कर्म करने वाले सभी मनुष्य आज भी नीच हैं और मरणोपरान्त भी नीच हैं। नीचता दुर्गुण का प्रतिबिम्ब है और इसके विपरीत भाव उच्चता के सूचक हैं,ऐसा नीच आचरण करने वाले यदि स्वयं पर उच्चता का गर्व करते हैं. तो करें. वास्तविकता तो विपरीत ही है। आज वर्गभेद की इस ज्वाला ने राजनीति का घृत ग्रहण कर समाज को विषाक्त कर डाला। जोड़-तोड़ छींटाकशी से बसवव कुलम्बकम् की भावना को आघात पहुँचा है । ऐसे युक्तिसंगत सूत्र पुरुषार्थ और सन्मार्ग की विभूति प्रदान करते हैं तथा दूसरे के तिल प्रमाण गुणों को गिरिप्रमाण देखने की दृष्टि देते हैं तथा समाज को संकुचित परिधियों से निकालकर विशालता के शिखरों पर विचरण कराते हैं। सामाजिक जीवन आज प्राकृतिक और असहज होता जा रहा है। प्रदूषण न केवल पर्यावरण में अपितु विचारों के सूक्ष्मलोक में पहुंच गया है। नगरीकरण, औद्योगीकरण, यातायात के आधुनिक यन्त्र साधन, तेज ध्वनि, धुआँ, अणुशक्ति का प्रयोग, दूषित वायु, दूषित जल, दूषित खाद्य पदार्थ, पृथ्वी की निरन्तर खुदाई, वनों का काटा जाना, रेडियोधर्मी, जैविक रसायनिक कचरा, मांसाहार की बढ़ती प्रवृत्ति, पारस्परिक वैमनस्य, अर्थलोलुपता ने समाज को रुग्ण बनाया है। समाज में श्रम और पुरुषार्थ की प्रतिष्ठा होनी चाहिए । पुरुषार्थ से धरती का सौन्दर्य खिलता है। समृद्ध समाज बनता है तपता निर्जरा यह सूत्र पुरुषार्थ का मस्तकाभिषेक और कृतित्व की नीराजना है। तप बन्धन व आवरण मुक्त करता है। पुरुषार्थ की तपस्या विघ्न-बाधा लाने वाले तत्त्वों (कर्मों) का अस्तित्व समाप्त कर जीवन को उत्कर्षकारी तत्त्वों में वृद्धि करती है। ऐसा ही पुरुषार्थ मानव समाज को निठल्ला, आलसी, कर्महीन, भाग्यवादी बनने से रोककर उसे कुन्दन बनाता है। ऐसा ही पुरुषार्थ मनुष्यता के ललाट पर रोली कुंकुम का तिलक करता है जो ऐसे पुरुषार्थ से चिंगारी निकलती है वह सदैव प्रकाश बनती है। साहस को समृद्ध करती है। आत्मविश्वास को बढ़ाती है और प्रगति के नये द्वार खोलती है। तप करने वाला समाज ही अपने मध्य नरपुंगव महामना उत्पन्न कर आदरणीय बनता है। श्रम और साधना उत्कर्ष के मूल हैं। श्रम हमारी एक-एक सांस को सार्थक बना देता है। श्रम ही वह पारस पत्थर है जो लोहे को सोना बना देता है। जिन्होंने यह सूत्र दिया वे आचार्य स्वयं ही उस श्रमण संस्कृति के भास्वर नक्षत्र हैं जो धमाधारित हैं। वं पौरवेण निववि आदरास्पद शक्तिमान पुरुष दैव की उपासना नहीं करते । समाज व समस्त मानव मात्र के लिए यह प्रेरक निर्देश मार्गच्यवननिर्जराय परिषोढव्या परीवहा: पुरुषार्थी का आत्मबल व आत्मतेज विकसित करता है। पुरुषार्थी को प्रेरणा देता है कष्ट सहने की। परीषह (कष्ट) सहने वाले अपने मार्ग से च्युत नहीं होते, अपितु ऐसा राजमार्ग बनाते हैं जो अन्य जनों के लिए इतिहास बनता है। आचार्य श्री ने प्राणी-चेतना के क्षीरसागर को मथकर उसके अन्तस्तल में छिपे रत्नों को पहचाना है और मौलिक अनुभूतियों के नवीन रत्नों को भी बाहर निकालकर समाज के धार्मिक एवं दार्शनिक विचारों के आवर्गों से समाजोपयोगी सिद्धान्तों को उबारकर मानव के मन:क्षितिज में आध्यात्मिक शिखरों के सौन्दर्य को इस प्रकार चित्रित किया है कि युगयम में मानव समाज विकासपक्ष की बाधाओं तथा व्यवधानों को हटाने, मानस-ग्रन्थियों को सुलझाने एवं जीवनोन्नयन में सफल हो सकेगी। १. तत्वार्यसूत्र, 9/3. १. वही, 9/1.
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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