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प्रमतयोगात्प्राणव्यपरो हिंसा । it
असावधान होते ही हम हिंसक हो जाते हैं। 'सावधानी हटी, दुर्घटना घटी हिसा केवल मनुष्य के प्रति ही नहीं होती, अपितु वह वह जागतिक घटना है जिसका विस्तार प्रत्येक प्राणी तक प्रसारित होता है। महिला से अनुप्राणित व्यक्ति व्यक्ति की आंखों से बूंद-बूंद आंसू पोछ देने की सार्थकता प्राप्त करता है। संकीर्ण से विराट्, परिवार से समाज, समाज से राष्ट्र और राष्ट्र से विश्व में मानव मंगल की स्थापना का मंगलाचरण सूत्रकार वर्णित अहिंसा से है जो बन्ध, वध, छेवन, अतिभारारोपण, अन्नपान के निरोध युक्त दूषण से मुक्त है तथा वचनगुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्ष्यासमिति, आदाननिक्षेपण समिति तथा आलोकितपानभोजन से भावित है। आज जब हम वर्तमान परिबेश या परिस्थिति पर विचार करते हैं तो प्रतीत होता है कि जीवन में निरन्तर अवमूल्यित होती जा रही अहिंसा का ही दुष्परिणाम है कि आज वार्ताए तो निःशस्त्रीकरण की होती है पर तैयारी युद्ध की होती है ऐसे सवेदनशील क्षणों में अहिंसा ही अवरोधक का कार्य कर सकती है।
प्रमत्त-व्यपरोपण हिंसा में सम्पूर्ण आचरण संहिता का विधान है एक अप्रमत्त ही एक-एक पल दीपक की लौं की तहर जीता है उसे ज्ञात है मेरे खानपान, रहन-सहन और दैनिक उपयोग की हिंसा से पूरे समाज का ढाचा चरमराता है। मेरे चमड़े की वस्तुओं के त्याग से, घरो में कीटनाशकों के प्रयोग, अशुद्ध भोजन शैली से भले ही समाज में आमूलचूल परिवर्तन न हो पर हिंसा के प्रत्यक्ष समर्थकों का मनोबल तो टूटता है। अप्रमत्त व्यक्ति ही समाज को उठाते हैं और त्याग की महिमा को वृद्धिगत कर सस्कारशील समाज की स्थापना में अप्रतिम योगदान देते हैं।
समाज मे सत्य और विश्वास की स्थापना का सुन्दर सूत्र सूत्रकार देते हैं- 'असदभिधानमनृतम्'' तथा सूत्र की व्याख्या करने वाला सूत्र 'मिथ्योपदेश - रहोध्याक्यानकूटलेख क्रियान्यासापहारसाकारमन्त्रभेदा ।'' और इस सत्य को सुरक्षित रखने के लिए पाँच भावनाएं हैं- क्रोधलोभ- भीरुत्व हास्यप्रत्याक्यानान्यनुवीचिभाषणं च पच । *
सूत्रकार ने सत्य और उसके अतीचारों, भावनाओ का पूरा चिट्ठा खोला है - लोभ के वश रिश्वत लेकर, क्रोध और भय के वश प्रतिशोध और प्रलोभनों से कितने ही गवाह न्यायालयों में निरपराधी को कारावास और अपराधी को खुली छूट दिला देते हैं। इसी के कारण आज समाज में अपराधी खुल्लमखुल्ला घूम रहे हैं। प्रतिदिन झूठे लेख लिखना, जाली हस्ताक्षरों से बैंक से रुपया उड़ाना, दूसरों की धरोहर हड़प लेना, सामान्य हो गया है।
आचार्य उमास्वामी वर्गोदय के विरुद्ध और सर्वोदय के पक्ष में हैं। सामाजिक और श्रेयोन्नति के लिए उन्होंने अचौर्य को व्रत की संज्ञा दी। चोरी के रूप स्वरूप मे वह प्रकाश है जो तमसो मा ज्योतिर्गमय को सटीक बनाता है, लोकचेतना को जगाता है।
वसावानं स्वयम् बिना दी हुई वस्तु को ग्रहण करना स्तेय अर्थात् चोरी है। शून्यागारवास, विमोचितावास, परोपरोधाकरण, मैक्ष्णशुद्धि और सधर्माविसंवाद ये अचौर्य की भावनाएँ तथा स्तेनप्रयोग, आहृतादान, विरुद्धराज्यातिक्रम,
१. तत्त्वार्थसूत्र, 7/13.
२. वही, 1/14.
३. वही, 1 / 26.
४. वही, 7/5.
५. वही, 7/15.