SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 126
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बागम में यह भी उल्लेख है कि आसामी भव की आयु का बन्ध हो जाने के बाद अकालमरण नहीं होता है। अगले भवकीमाषु का बन्ध हो जाने के बाद भुज्यमान आयु जितनी शेष रह गई है, उस आयु स्थिति के पूर्ण हो जाने पर ही कोय का मरण होगा। उसने पूर्व नहीं होगा। आचार्य वीरसेन इसी बात को कहते हैं - "परमविमाउए बडे पच्छा मुंबमानासमस कालीपायो पत्ति बहा समवेण वविति" अर्थात् परभव सम्बन्धी आयु के बंधने के पश्चात् भुज्यमान आयु का कदलीपात नहीं होता किन्तु जीव की जितनी आयु थी उतनी का ही वेधन करता है। यह नियम सभी जीवों के साथ लागू होता है किन्तु शास्त्रों में कदलीघात मरण वाले और कदलीचात मरण को प्राप्त न होने वाले जीवों के आयुबन्ध के नियम में अन्तर है। जिन जीवों की आयु का कदलीघात नहीं होता अर्थात् जो निरुपक्रमायुष्क जीव हैं, वे अपनी भुज्यमान आयु में छह माह भायबन्ध के योग्य होते हैं, ऐसा स्वाभाविक नियम है। अत: उनकी आयु के अन्तिम छह मास के अतिरिक्त शेष भुज्यमान आयु परभविक आयुबन्ध के बिना बीत जाती है। एक समय अधिक पूर्वकोटि आदि रूप आगे की सब आयु असंख्यातवर्ष आयु वाले मनुष्य व तिर्यञ्च भोगभूमिया होते हैं । असख्यातवर्ष की आयु वाले जीवों का कदलीघात मरण नहीं होता क्योंकि वे अनपवर्त्य निरुपक्रम आयु वाले होते हैं। पण्डित श्री वंशीधर व्याकरणाचार्य इस विषय में कुछ पृथक कथन करते हैं, उनका कहना है कि - 'वध्यमान आयु में उत्कर्षण अपकर्षण होते ही हैं किन्तु भुज्यमान सम्पूर्ण आयुओं में भी उत्कर्षण अपकर्षण करण हो सकते हैं। इसका कारण यह है कि भुज्यमान तिर्यञ्चायु और मनुष्यायु की उदीरणा सर्वसम्मत है।' भुज्यमान देवायु और नरकायु की उदीरणा भी सिद्धान्त ग्रन्थों में बतलायी है - "संक्रमणाकरणणा लवकरणा होति सब्ब मारणे |" अर्थात् एक संक्रमण करण को छोड़कर वाकी के बन्ध, उत्कर्षण, अपकर्षण, उदीरणा, सत्त्व, उदय, उपशान्त, निधत्ति और निकाचना ये नव करण सम्पूर्ण आयुओं मे होते हैं। किसी भी कर्म की उदीरणा उसके उदयकाल में ही होती है, कारण उदीरणा का लक्षण "मण्णत्वठियस्सुदये संघहणमुदीरणा इभत्वि" उदयावलिबाह्यस्थितस्थितिद्रव्यस्यापकर्षणवशादुदयावल्यां निक्षेपणमुदीरणा खलु । उदयावली के द्रव्य से अधिक स्थिति वाले द्रव्य को अपकर्षण के द्वारा उदयावली में डाल देना उदीरणा है। उदयगत कर्म के वर्तमान समय से लेकर आवली पर्यन्त जितने समय हों उन सबके समूह को उदयावली कहा है। इससे यह निर्णय हुआ कि कर्म की उदीरणा उसके उदयकाल में ही हो सकती है। लब्धिसार में लिखा है कि - "उल्याणमावलिहिवरमवाणं बाहिरमिशिवणई।"५ अर्थात उदयावली में उदयगत प्रकृतियों का ही क्षेपण होता है। उदयावली के बाहर उदयगत और अनुदयगत दोनों तरह की प्रकृतियों का क्षेपण होता है। इससे भी यही सिद्ध होता है कि जिस कर्म का उदय होता है उसी का उदयावली बाहाद्रव्य उदयावली में दिया जा सकता है। इसलिए देवायु और मरकायु की उदीरणा क्रम से देवगति और नरकगति में होगी अन्यत्र नहीं। इससे स्पष्ट है कि भुज्यमान देवायु और नरकायु की भी उदीरणा हो सकती है। १.ध.पु.10.237 २.मिकाकमाउमा पुण छम्मासाथसेसे आउबबंधपाभोगा होसि।-धवल पु.10, पृ. 234. ३, मोम्मटसार कर्मकाण्ड गाया, ४.गोमासाकर्मकाण्ड गाथा439
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy