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________________ तत्वार्थ/6 सम्यग्दृष्टि पञ्चेन्द्रिय पुरुष जीव के ग्यारहवें गुणस्थान में पाँचों, यों जितने भी सम्भव पाये जाते हैं, सब जीव के तदात्मक हो रहे असाधारण भाव हैं। अतः प्रमाणों से युक्तिसिद्ध हो रहे पाँच औपशमिक आदि स्वभाव तो जीव के असाधारण स्वा 5. 4. g - यहाँ आचार्य विद्यानन्द ने एक शङ्का उपस्थित की है कि ज्ञान, सुख, चैतन्य, सत्ता इस प्रकार के भावप्राणों का धारण होने से सिद्धों के भी मुख्य जीवत्व प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार स्वीकार करने पर तो यह जीवत्व भाव क्षायिक हो जायेगा। क्योंकि अनन्तज्ञान आदिक तो ज्ञानावरण आदि कर्मों के क्षय से उत्पन्न हुये क्षायिक हैं - 'मनु ज्ञानाभवप्राणस्य धारणात् सिद्धस्य मुख्य जीवत्वम् इत्यभ्युपगमे शामिकम् एतत् स्यात् अनन्तज्ञानावे: शायिकत्वात् । इस शङ्का का समाधान करते हुये आचार्य विद्यानन्द लिखते हैं कि 'इति चेत् न, जीवनक्रियायाः शब्दनिष्पत्त्यर्थत्वात् तदेकार्थसमवेतस्य जीवत्यसामान्यस्य जीवशब्दप्रवृत्तिनिमित्तत्वोपपत्तेः । अथवा न विकासfreestarreraj जीवत्वम् । किं तर्हि चित्तत्वं न च तदाख्ययापेक्षं न चापि कर्मशयापेक्षं सर्वदाभावात् ।" अर्थात् उक्त शङ्का ठीक नहीं है, क्योंकि प्राणधारण रूप जीवन क्रिया तो ध्याकरणशास्त्र द्वारा जीव शब्द की निष्पत्ति मात्र के लिये हैं। जहाँ ही जीव द्रव्य में प्राण धारण रूप क्रिया रहती है वहाँ ही जीवत्व नाम की जाति रहती है । जो दो धर्म एक द्रव्य में समवाय सम्बन्ध से ठहरते हैं। उनका रूप- रस के समान परस्पर में एकार्थ समवाय सम्बन्ध माना गया है। अतः जीवत्व नामक सामान्य को जीव शब्द की प्रवृत्ति का निमित्तपना युक्ति से निर्णीत हो रहा है। जीवत्व जाति ही जीवत्व भाव है। रूढ़ि शब्दों में धात्वर्थक्रिया को केवल व्युत्पत्ति के लिये ही माना गया है। वस्तुत: आत्मा का चैतन्य गुण ही जीवत्व है। वह चेतना तो आयुष्य कर्म के उदय की अपेक्षा रखने वाली नहीं है। और वह चैतन्य कर्मों के क्षय की अपेक्षा को धारने वाले भी नहीं हैं। क्योंकि अनादि से अनन्तकाल तक निगोद अवस्था से लेकर सिद्धों तक में वह चेतना भाव सदा पाया जाता है। सक्षेप मे हम कह सकते हैं कि शास्त्रों में तीन प्रकार से जीव के असाधारण भावों का सयुक्तिक विश्लेषण प्राप्त होता है - १. यह कि द्रव्य की अपेक्षा भौपशमिकादि यांचों भाव मात्र जीव द्रव्य में पाये जाते हैं अजीव द्रव्य मे नही, अत: सभी पाँचों भाव जीव द्रव्य के असाधारण भाव । २. यह कि औपशमिक आदि प्रथम चार भाव कर्म सापेक्ष हैं, जो सिद्ध भगवान् में न पाये जाने के कारण अव्याप्ति दोष से दूषित हैं । अतः कर्म निरपेक्ष पारिणामिक भाव मात्र ही जीव के असाधारण भाव हैं । ३. यह कि भव्य जीवों में अभव्यत्व भाव का अभाव है और अभव्य जीवों में भव्यत्व भाव का अभाव है तथा सिद्ध परमेष्ठी में अभव्यत्व और भव्यत्व - इन दोनों पारिणामिक भावों का भी अभाव है। अत: एक मात्र जीवत्व भाव ही जीव का असाधारण भाव है। यद्यपि ऊपर से ऐसा प्रतीत होता है कि जीव के तीन प्रकार से असाधारण भाव कैसे हो सकते हैं ? और तीनों ही शास्त्रसम्मत भी । किन्तु सापेक्षदृष्टि से विचार करने पर कहीं भी और कोई भी प्रकार का परस्पर विरोध नहीं है। मात्र विश्लेषण करने की अपनी-अपनी दृष्टि है । १. तत्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार 2/1 उत्पानिका का हिन्दी अनुवाद (भाग 5, पृष्ठ 3) २. तत्त्वार्यश्लोकवार्तिकालंकार 2/7 की वृति ३. स्वार्थकार्तिककार 2/7 की वृति *7
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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