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________________ किन्तु जीव के कासाधारण भाव नहीं है, क्योंकि ये भाव जीव के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों में भी पाये जाते हैं। किन्तु जीवत्व, भव्यत्व सौर अभव्यत्व - ये तीन पारिवामिक भाव जीवातिरिक्त अन्य द्रव्यों में नहीं पाये जाते हैं। अत: सापेक्ष दृष्टि से ये जीव के असाधारम भाव हैं। न्यायवाव में तीन प्रकार के दोष बतलाये गये हैं - अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असम्भव । जो लक्षण इन तीन दोषों से रहित हो वही माण निर्दोष लक्षण कहा जाता है। यहाँ जीव के जिन जीवत्व, भव्यत्व और अभब्यत्व- इन तीन भावों को पारिणामिक भाव कहा गया है, उनमें से एक मात्र जीवत्व भाव सभी जीवों में पाया जाता है, अतः जोक्त्व भाव असाधारण भाव कहा जायेगा। शेष दो भव्यत्व और अभव्यत्व भावों में से अभव्यत्व भाव अभव्य जीवों में पाया जाता है और भव्यत्व भाव भव्य जीवों में लोकाग्रवासी सिद्धों में न अभव्यत्व भाव है और न भव्यत्व भाव । अर्थात वे अभव्यत्व और भव्यत्व- इन दोनों भावों से रहित हैं। न्यायशास्त्र के उपर्युक्त बिन्दुओं को ध्यान में रखकर यदि विचार किया जाये तो जीव के तीनों पारिणामिक भाव कर्म निरपेक्ष हैं, किन्तु असाधारण भाव नहीं हैं। अपितु उन तीनों में से मात्र जीवत्व भाव ही असाधारण भाव ठहरता है। शेष दो पारिणामिक भाव सम्पूर्ण जीवराशि में न पाये जाने से अव्याप्ति दोष से ग्रसित हैं, अत: इन्हें जीव के पारिणामिक भाव तो कह सकते हैं, किन्तु असाधारण भाव कदापि नहीं कहा जा सकता है। हाँ, यह अवश्य है कि सिद्धों में भव्यत्व भाव को भूतनय की अपेक्षा स्वीकार किया जा सकता है, किन्तु अभव्यत्व भाव को तो किसी भी स्थिति में जीव का असाधारण भाव स्वीकार नहीं किया जा सकता है, क्योकि वह न तो भव्यों में रहता है और न सिद्धों में। अपितु मात्र अभव्य जीवों में रहता है। श्रीमन्नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव ने - इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास - इन चार प्राणों को तीनों कालों में धारण करने वाले को व्यवहार से जीव कहा है और निश्चय से जीव वह है, जिसमें चेतना पाई जाये - णिच्छयणयदो दु चेदणा जस्स। यहाँ चेतना का अर्थ जीवत्व ही है। क्योंकि पाँच इन्द्रियाँ, मन, वचन और काय रूप तीन बल तथा आयु और श्वासोच्छ्वास - ये दस प्राण ससारी जीव ही धारण करते हैं, सिद्ध भगवान् नहीं। मिद्ध भगवान् में तो भावप्राण ही पाया जाता है। इसी का अपरनाम जीवत्व रूप पारिणामिक भाव है और यही जीव का एक मात्र असाधारण भाव है। क्योंकि जीवत्व भाव व्यापक है और शेष दो भाव व्याप्य। जीव के पूर्वोक्त औपशमिकादि पाँचों भावों के क्रमश: दो, नौ, अठारह, इक्कीस और तीन भेद हैं। इस प्रकार जीव के कुल तिरेपन भाव होते हैं, जिनका शास्त्रों में विस्तार से वर्णन किया गया है। जीव के जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व - इन तीन पारिणामिक भावों में से अभव्य जीव के जीवत्व और अभव्यत्व - ये दो भाव पाये जाते हैं और भव्यजीव के जीवत्व और भव्यत्व - ये दो भाव पाये जाते हैं तथा मुक्त जीव के केवल जीवत्व भाव पाया जाता है। मुक्त जीवों के कर्मों का अत्यन्त अभाव होने के साथ-साथ अन्य किन-किन भावों का अभाव होता है, इसको सष्ट करते हुए आचार्य उमास्वामी ने लिखा है - 'मोपलामिकाविभव्यात्यानांच" अर्थात् मुक्त जीबों के औपशनिक आदि बार भावों का और पारिणामिक भावों में से भव्यत्व भाव का सर्वथा अभाव हो जाता है। और १. वृहद्रव्यसंग्रह, गाथा 3 २. सम्यक्त्ववारि मानवमिवानलाभभोयोपयोगवीर्याणि च । ज्ञानाशानदर्शनलब्धयश्चतुस्विस्त्रिपञ्चभेदाः सम्यकस्वचारित्रसंघमासंयमाश्चा गतिकवायलिमिथ्यावर्शनासानासंयतासिद्धलेश्याश्चतु-श्चतुव्यककषड्भेदाः । जीवभव्याभव्यत्वानि च । - तत्वार्थसूत्र 2/2-1 ३. तस्वार्थसूत्र, 10/3. -
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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