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________________ तत्वार्थसूचि जीव के असाधारण भावों की विवेचना " आधुनिक सन्दर्भ में * डा. कमलेशकुमार जैन जिस लोक में हम निवास करते हैं, वह लोक छह द्रव्यों से ठसाठस भरा है। वे छह द्रव्य हैं- जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । इनमें जीव द्रव्य चेतन रूप है, और शेष पाँच द्रव्य अचेतन रूप । यद्यपि छहों द्रव्यों की सत्ता पृथक्-पृथक् है और उन सबके कार्य भी स्वतन्त्र हैं तथापि सभी द्रव्य परस्पर सापेक्ष और एक दूसरे से सम्बद्ध हैं। इन छहों द्रव्यों में जीव द्रव्य प्रमुख है, क्योंकि वही पुद्गल द्रव्य के निमित्त से स्वकर्मानुसार शरीर, वाणी, मन और श्वासोच्छ्वास तथा स्वर्ग-नरकादि में जाकर सांसारिक सुख, दुःख, जीवन और मरण प्राप्त करता है,' किन्तु उन सबका उपादान कारण तो जीव ही है। भव्य जीव अपने पुरुषार्थ से पुद्गल द्रव्य रूप कर्मो से छुटकारा पाकर मोक्ष की प्राप्ति भी कर सकता है। - भारतीय दर्शनों में जीव और आत्मा - दोनों एकार्थवाची है। जैनशास्त्रों में जीव का लक्षण उपयोगमय कहा गया है।' यह उपयोग दो प्रकार का है - ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग । अर्थात् जीव में जानने और देखने की शक्ति है। इस जीव में पाँच भाव पाये जाते हैं- औपशमिक, क्षायिक, मिश्र ( क्षायोपशमिक), औदयिक और पारिणामिक। ये जीव के स्वतत्त्व / निजभाव है। इनमें से प्रथम चार भाव कर्मसापेक्ष हैं, क्योंकि इनमें कर्मो की भूमिका निर्विवाद है। जैसे avaमक भाव में कर्मों की उपशम रूप स्थिति, क्षायिकभाव में कर्मों की क्षय रूप स्थिति, क्षायोपशमिक भाव में कुछ कर्मों की क्षय और कुछ कर्मों की उपशम रूप मिश्र स्थिति तथा औदयिक भाव में कर्मों की उदय रूप स्थिति रहती है। किन्तु जीव के पञ्चम पारिणामिक भावों अथवा स्वाभाविक भावों अथवा जिन्हें हम असाधारण भाव भी कह सकते हैं, में कर्मों की किसी भी प्रकार की भूमिका नहीं रहती है। अतः ये भाव जीव के स्वतन्त्र अथवा कर्म निरपेक्ष भाव हैं । ये पाँचों भाव जीव द्रव्य में ही पाये जाते हैं, अन्य पाँच द्रव्यों, यथा- पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल रूप द्रव्यों में नहीं । अतः ये पाँचों भाव सापेक्ष दृष्टि से जीव के असाधारण भाव हैं । सांख्यदर्शन और वेदान्तदर्शन आत्मा को कूटस्थ नित्य मानते हैं तथा उसमें कोई परिवर्तन नहीं मानते हैं । सांख्यदर्शन तो ज्ञान, सुख, दुःख आदि परिणमनों को प्रकृति के ही मानता है। वैशेषिक, नैयायिक और मीमांसक ज्ञान आदि को आत्मा का गुण मानते हैं, किन्तु वे भी आत्मा को अपरिणमनशील मानते हैं। बौद्ध आत्मा को पूर्ण रूपेण क्षणिक अर्थात् भावों का प्रवाह मात्र मानते हैं - यत् क्षणिकं तत् सत् । किन्तु जैनदर्शन का सिद्धान्त है कि जिस प्रकार प्राकृतिक १. शरीरवाङ्मन: प्राणापाना: पुद्गलानाम् । सुखदुःखजीवितमरणोपग्रहाश्च । त. सू. 5/19-20 २. उपयोगो लक्षणम् । तस्वार्थसूत्र 2/8 ३. avatarfast भावो विश्व जीवस्य स्वतस्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च । त. सू2/1 * भवन, बी. 2/249, लेन नं. 14, रवीन्द्रपुरी, वाराणसी- 221005 फोन नं. 0542- 2315323
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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