SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बेमेतर भारतीय दर्शनों में काम इन्द्रिय करके इन्द्रियवन्य जान को प्रत्यक्ष समापसानों को परोक माना गया है। किन्तु इस लक्षण के अनुसार बोगियों का मान प्रत्यक्ष सिद्ध नहीं हो सकता है, क्योकिया मान इन्द्रियों की सहायता के बिना ही होता है। उसे मानना तो नेतर दार्शनिकों को भी अमीर नहीं है। बत एव अक्ष शब्द का आत्मा अर्थ मानकर तत्वार्थसूत्रकार द्वारा आत्मा की योग्यता के बल से उत्पन्न ज्ञान को प्रत्यक्ष तथा इन्द्रिय एवं मन के आधीन ज्ञान को परोक्ष कहना सर्वथा युक्तियुक्त है। फिर भी राजवार्तिक में आचार्य अकलंकदेव ने अवधि, मन:पर्यय एवं केवलज्ञान को प्रत्यक्ष मानकर भी इन्द्रिय एवं मन की सहायता से होने वाले मतिज्ञान को जो सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा गया है, वह लौकिक दृष्टि से कथन है, परमार्थत: नहीं। कुछ दार्शनिक अनुमान, उपमान, आगम, अर्थापत्ति एवं अभाव आदि को भी प्रमाण का भेद स्वीकार करते हैं। इस विषय में तत्त्वार्थाधिगमभाष्य का कथन अवधेय है. 'अनुमानोपमानागमार्थापत्तिसंभवाभावानपि च प्रमाणानि इति केचिन्मन्यन्ते तत्कथमेतदिति । अत्रोच्यते - सर्वाण्येतानि मतिश्रुतयोरन्तर्भूता-नौन्द्रियार्थसन्निकर्षनिमित्तत्वात् । किं चान्यत् - अप्रमाणान्येव वा । कुत: ? मिथ्यादर्शनपरिग्रहार विपरीतोपदेशाच्च । मिथ्यादृष्टेहि मतिभुताबधयो नियतमज्ञानमेवेति वक्ष्यते ।' अर्थात् कोई अनुमान, उपमान, आगम, अर्थापत्ति, संभव, अभाव को भी प्रमाण मानते हैं - यह कैसे माना जाय ? इसका उत्तर देते हुए कहा है कि ये सभी प्रमाण मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में ही अन्तर्भूत हो जाते हैं। क्योंकि ये इन्द्रिय और पदार्थ के सन्निकर्ष का निमित्त पाकर ही उत्पन्न होने वाले हैं। अन्यथा ये प्रमाण ही नहीं है क्योंकि मिलादर्शन के सहचारी होने से तथा विपरीत उपदेश देने वाले होने से इनकी अप्रमाणता है । मिथ्यादृष्टि के मतिज्ञान, श्रुतीन एवं अवधिज्ञान अज्ञान ही होते हैं। प्रमाण के अन्य भेद तत्त्वार्थसूत्र के प्रमुख टीकाकार आचार्य पूज्यपाद ने 'तत्त्रमाणं विविध स्वार्थ परार्थ च' कहकर प्रमाण के दो अन्य भेद किये हैं- स्वार्थ एवं परार्थी ज्ञानात्मक प्रमाण को स्वार्थ प्रमाण कहते हैं तथा वचनात्मक प्रमाण को परार्थ प्रमाण कहते हैं। भाचार्य अकलंकदेव का कहना है कि मान स्वाधिगम हेतु होता है जो प्रमाण और नम रूप होता है।बचन पराधिगम हेतु होता है। वचनात्मक स्यावाद श्रुत के द्वारा जीवादि की प्रत्येक पर्याय सप्तमेगी रूप से पानी जाती है। स्वार्थ परा प्रमाण की संगति - आचार्य पूज्यपाद ने स्वार्थ एवं परार्ध प्रमाणों की तत्त्वार्धसूत्रकार द्वारा मान्य प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणों से संगति बैठाते हुए कहा है कि मुतबान को छोड़कर शेष चारों मतिबान, मवधिनान, मन:पवमान और केवलज्ञान स्थाई प्रमाण है। परन्तु भुतकान स्वार्थ प्रमाण भी है मार कार्य प्रमाण भी। फलित यह है कि स्वार्थ तो पांचों ही 1.सत्याधिगममाय 1/2पृ. 35 २. सर्वार्थसिदि.1/6पृ. 20 .४.सत्यागार्तिक ।/6.33 —ा प्रमाय भूतवयम् । श्रुतं पुनः स्वार्थ भवति परार्थं च ।' - सर्वार्थसिदि।/6 पृ. 20
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy