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________________ ( ३१ ) (१) आन्दोलन युग (१८५०-१६०० ) - जैन साहित्य प्रकाशन के इस प्रथम युग में धार्मिक साहित्य के मुद्रण प्रकाशन का आन्दोलन प्रारंभ हुआ । प्रथम पचीस वर्षो (१८५०-७५ ) मे इस मान्दोलन ने प्राय: कोई प्रगति नहीं की और इस बीच मे दो चार पुस्तके छपी हो तो छपी हो, किन्तु उनके विषयमें कुछ ज्ञात नही । सन् १८७५ और १६०० के बीच आन्दोलन ने वास्तविक जोर पकड़ा और प्रवल विरोध के होते हुए भी पुस्तकें छपने लगी । यह समय भी अान्दोलन के अत्यन्त अनुकूल पडा। देश की तत्कालीन जैन समाज की बाह्य परिस्थितिये भी. चाहे परोक्ष रूप से ही सही, उसकी प्रगति और सफलता में अत्यधिक सहायक सिद्ध हुई । सन् १८५७ के स्वातंत्र्य समर के उपरान्त दस पाँच वर्ष तो उक्त सफल महान राजनैतिक क्रान्ति से उत्पन्न व्यापक प्रातंक के शान्त होने में लगे, किन्तु धीरे धीरे महारानी विक्टोरिया की, कम से कम बाह्यत उदार नीति के कारण तथा युद्ध, विद्रोह, दगे आदि के अभाव में १६ वी शताब्दी का शेष उत्तरार्ध भारतीय प्रजा के लिए विदेशी शासन के अ ंतर्गत सर्वाधिक शान्ति पूर्ण रहा । समय की आवश्यकता और राज्य के प्रोत्साहन से शिक्षा का भी प्रचार बढा, विश्व विद्यालय स्थापित होने लगे, स्थान स्थान मे स्कूल कालिज खुलने लगे । अगरेजी मे ही नही भारतीय भाषाओ मे भी समाचार पत्र प्रकाशित होने लगे । यूरोप आदि समुद्र पार विदेशो मे भी कितने ही उत्साही एव निर्भीक भारतीय गमनागमन करने लगे । रेल पथ की स्थपना और डाक तार आदि की द्रुत व्यवस्था, जन साधारण को कूप मडूकता से बाहर निकालने लगी । अगरेजी शासन मे भारत वर्ष की सनातन एकता प्रत्यक्ष होने लगा, सम्पूर्ण देश और समाज की राष्ट्रीय तथा सामाजिक उन्नति के इच्छुक और उनके लिये प्रयत्न शील नेता भी उत्पन्न होने लगे । सनु १८८६ मे राष्ट्रीय महासभा काग्रेस की स्थापना हुई जिससे एक प्रकार के राष्ट्रीय राजनैतिक आन्दोलन का भी श्रीगणेश हो गया । पाश्चात्य विचार धाराओ की निरन्तर लगने वाली टक्करो और बढ़ती हुई बहुज्ञता के फलस्वरूप भारतीयो के सामाजिक एवं धार्मिक दृष्टिकोणो मे भी विवेक, उदारता
SR No.010137
Book TitlePrakashit Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Jyoti Prasad Jain
PublisherJain Mitra Mandal
Publication Year1958
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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