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________________ * इस धर्म र समय के विषय में अपनी अपनी भारत बनाली मोर प्रकट करती थीं, बससी शताब्दी के अंतिम पतुष्पाद मेंशा दिशा में कार्य करने वाले प्रतिमाशाली विशेषज्ञों को स्वा बैन साहित्य और जैलो काही सहयोग प्राप्त झे मैया । उन्हें यह भी बताया गया कि वास्तविक मालिक, सर्वप्राचीन और अधिकांश जैन साहित्य यही (श्वेताम्बर प्राममादि) हैं। ऐसा बताये जाने पर उसे वैसा ही न मानने का उनके लिए कोई कास्म भी न था। अतएव उक्त विशेषलो मोर उनके अनुकर्ता भारतीय विद्वानो का जैनाध्ययन तथा उनके सत्सबंधी अधिकाश निर्णय उसी साहित्य के आधार पर भाषारित हुप, और इस कारण वे कुछ सदोष रहे तया अशतः ही सत्य हो सके । किन्तु इसके लिए न वे जैनेतर विद्वान ही दोषी हैं और न दूर दी श्वेताम्बर साघु और उनके महस्थ अनुयायी ही। यदि कोई दोषी है तो वे दिगम्बर जैन पडित और श्रीमान है जो अपनी समाज मे बहु सख्यक शिक्षितों और अनेक श्रेष्ठ विद्वानो के होते हुए भी परस्पर को सनातनी और आन्दोलन के पक्ष विपक्ष मे पड़कर इतनी दूर तक देख ही नही सके और सभवतया बाज भी इस दिशा मे उपयुक्त दृष्टि प्राप्त करने मे सफल नही हो सके। अस्तु, जैन पुस्तक साहित्य के इतिहास का प्रारभ सन् १८५० अथवा विक्रम सवत् ११०० के लगभग से होता है। आधुनिक शैली में व्यवस्थित जैनाध्ययन का प्रारंभ और हिन्दी जैन साहित्य के प्राधुनिक युग का प्रारंभ भी इसी समय से होता है। स्वय अखिल भारतीय दृष्टि से भी राष्ट्रीयता का उदय, सांस्कृति अध्ययन का प्रारंभ और हिन्दी साहित्य का प्राधुनिक युग भी सन् १८५७ के स्वातन्त्र्य समर के उपरान्त ही सन् १८६० से अथवा वि० सं० १९२० के लगभग से ही माना जाता है । युग विभाजन-की दृष्टि से, विशेषकर दिगम्बर जैन साहित्य के मुद्रण प्रकाशन के इतिहास को तीन युगो मे विभाजित किया जा सकता है-(१)आन्दोलन युग सन् १८५०-१६०० ई०, (२) प्रगति युग सन् १६००-१६२५, और (३) वर्तमान युग-१९२५ के उपरात ।
SR No.010137
Book TitlePrakashit Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Jyoti Prasad Jain
PublisherJain Mitra Mandal
Publication Year1958
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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