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________________ ( ३१ ) 1 युग की प्रगति से पिछड़ जाने के लिए तैयार नही थे, वे नवीन सभ्यता के free प्रकाश मे आने वाले आविष्कारो को अपनाना अन्य समाजों के उन्नति| शील वर्गों की भाति ही अपनी समाज के लिए भी परम आवश्यक समझते थे । उनका विश्वास था कि अब अन्धकार को भेद कर बाहर प्रकाश में आने का युग है, अतएव उन्होंने इरादा कर लिया कि अपने अमूल्य साहित्यिक रत्नों को मुद्रण कला की सहायता से बहुलता के साथ प्रकाश मे लाकर स्वयं उनसे अधिकाधिक लाभ उठावें ही, साथ ही दूसरे जिज्ञासुओं को भी अपने धर्म, साहित्य और संस्कृति के अध्ययन करने का तथा महत्व समझने का सुयोग प्रदान करें। फलस्वरूप १६वी शताब्दी के मध्य के लगभग छापे के पक्ष मे ग्रान्दोलन आरम्भ हुआ । प्रथम पच्चीस वर्षों में वह कुछ प्रगति न कर पाया किन्तु सन् १८५७ के पश्चात् इस आन्दोलन ने उग्ररूप धारण किया। उधर इस आन्दोलन के बढते हुए बल के साथ-साथ स्थिति पालको का विरोध भी अषिकाधिक जोर पकडने लगा । वर्तमान शताब्दी के प्रारम्भ तक यह द्वन्द बडे सघर्ष के साथ चला । आन्दोलन कर्त्ताओं को धमकिये दी गई, पीटा गया, जाति से बहिष्कृत किया गया, उनका मन्दिर में आना बन्द किया गया, स्थान स्थान मे इस प्रश्न को लेकर दल बन्दिये हो गई । हमारे नगर मेरठ का ही एक दिलचस्प उदाहरण है। एक महाशय एम० ए० एल० एल० बी० वकील ये और वे उस युग के एम० ए० थे जब प्रान्त भर मे दर्जन दो दर्जन से अधिक एम० ए० नही थे । किन्तु वे इतने कट्टर स्थिति पालक थे और धर्म ग्रन्थो की छपाई के तथा छपी पुस्तकों को मन्दिर मे लाने के इतने भारी विरोधी थे कि एक बार जब कुछ नवयुवक आन्दोलन कर्त्ताओ ने देव पूजन को उपयुक्त शुद्ध वस्त्रादि पहन और सामग्री लेकर एक रूपी पुस्तक की सहायता से पूजन करने का इरादा किया तो जिस वेदी में देव प्रतिमाएँ विराजमान थी, वे महाशय उक्त वेदी के सामने दोनों हाथों के दुपट्ट का पर्दा तानकर और बेदी को ढक कर खड़े हो गये और यह कहा कि किसी प्रकार भी छपी पुस्तक से पूजन
SR No.010137
Book TitlePrakashit Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Jyoti Prasad Jain
PublisherJain Mitra Mandal
Publication Year1958
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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