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________________ ( ३० ) * जो कि आजकल इस विषय का बहुत कोलाहल है इस वास्ते इस सभा ने प्रयागस्थ जैनियो की अनुमति सर्व माधारण पर प्रकाशित करने के अभिप्राय से इस लेख को मुद्रित कराना आवश्यक समझा ।-सभा की आज्ञानुसार सुमतिचन्द्र मन्त्री जैनोन्नति कारक सभा, प्रयाग । लाला बच्चू लाल जी तथा इनके सहयोगियों के छापा विरोधी कितने ही लेख भी जैन गजट आदि पत्रो मे प्रकाशित हुए थे और अन्य कितने ही स्थानो की जैन पचायतो ने भी उपरोक्त जैसे प्रस्ताव पास किये ये। ता० १७ जनवरी सन् १८६८ के जैन गजट मे प्रकाशित अपने एक लेख मे इन्ही बच्चू लाल ने स्पष्ट लिखा था कि "जैन शास्त्रो का छपाना महान अविनय है अत' भयङ्कर पाप बघ का कारण है, और जो जैन शास्त्र अजैनो के हाथ मे पहुचे भी हैं वे श्वेताम्बर आम्नाय के ही पहुचे । दिगम्बरो को ऐसी मूर्खता नहीं करनी चाहिए, उन्हे अपने शास्त्र कदापि नही छपाने चाहिये और न दूसरों के हाथ मे देने की भूल करनी चाहिये।" इसमे सन्देह नही कि उनके धर्म भीरु और अदूरदर्शी सामियो ने इन सदुपदेशो पर आचरण करने का अथक प्रयत्न किया। अभी १०-१२ वर्ष पूर्व ही जब धवलादि दिगम्बर आगम ग्रन्थो का मुद्रण प्रकाशन प्रारम्भ हो रहा था तो कई एक अनेक पदवियो एव उपाधियों से अलकृत दिग्गज जैन पण्डितो ने आगम अथो के छपाये जाने और गृहस्यो द्वारा उनका पठन पाठन किये जाने का भारी विरोध किया था। आज सन् १९५० मे भी यत्र तत्र ऐसे धर्म भीर श्रीमान मिल ही जाते है । जो छपे शास्त्रो का पढना तो दूर रहा उन्हे छूने मे भी पाप समझते हैं और परम पूज्य जिन वाणी की इस दुर्दशा पर आसू बहाया करते हैं। किन्तु, समाज मे अब ऐसे विवेकशील व्यक्ति भी उत्पन्न होने लगे जिन्होंने नवीन प्रणाली के अनुसार शिक्षा प्राप्त की थी और जिन्हे पाश्चात्य विचार धारापो के सम्पर्क में आने का सुयोग मिला था। शनै शनैः उनकी सख्या बढ़ने लगी। ये नव युवक समय के साथ-साथ चलना चाहते थे, प्रगतिशील
SR No.010137
Book TitlePrakashit Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Jyoti Prasad Jain
PublisherJain Mitra Mandal
Publication Year1958
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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