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मूर्तिविज्ञान, पर कार्य किया है और तद्विषयक मूल आधारो से पर्याप्त सामग्री एकत्रित की है। उनके कुछ महत्त्वपूर्ण लेख प्रकाशित भी हो चुके हैं, यथा जैन । देवी अम्बिका, जैन सरस्वती आदि (जे. यू. बी , १६४०-४१) डा० अग्रवाल ने जैन शिलालेखो पर से जैन मूत्तिविज्ञान सम्बन्धी कतिपय शब्दो दी व्याख्या की है जे ए V पृ० ४३)। उन्होने तथा श्री कृष्णदत्त बाजपेयी, एम० एम० नागर आदि ने, विशेषरूप मे मथुग की प्राचीन जैन मूर्तकला पर कई उपयोगी लेख लिखे हैं । मथुरा की जैन मरस्वती पर हमारा भी एक लेख प्रकाशित हा है। डा0 मोतीचन्द्र के तद्विषयक लेख भी महत्वपूर्ण है। श्री के के गांगुली के लेख 'वगाल की जैन मूत्तिया' (जे सी --VI,२ पृ० १३७) से प्रकट है, कि देश के इस भाग की खोज और अधिक जाचपूर्वक किये जाने की आवश्यकता है । एक स्फुतिदायक लेख 'जैन धर्म और भट्टकल पुरातत्व' (बम्बई प्रान्तीय कन्नड अनुमधान की वार्षिक रिपोर्ट, १६३६-४०, धारवाड, १९४१, पृ० ८१) मे, उक्त अनुमबान निर्देशक श्री आर एस पचमुखी ने, जैन मूत्ति विज्ञान के कतिपय अगो पर सरसरी दृष्टि में विचार किया है। उनके कुछ सामान्य कथन अप्रमाणिक होते हुए भी, उसमे उन्होने दक्षिणात्य जैन धर्म का शृखलाबद्ध विवरण दिया है और भट्टकाल तथा उन अन्य स्थानो की जो किसी समय जैन सस्कृति के प्रसिद्ध केन्द्र थे, कतिपय नवीन मूर्तियो को प्रकाश मे लाये हैं। मुनि कान्ति सागर, अशोक कुमार भट्टाचार्य आदि कुछ अन्य विद्वानो ने भी इस विषय पर लेखादि लिखे है । जैन मूविज्ञान और जैन देववाद तथा जैनधर्म मे मूर्तिपूजा का विकास, एव इतिहाम~दन्हें पृथक २ विषय मानकर ऐतिहासिक पूर्वपीठिका के साथ उक्त अध्ययन का प्रारभ करना अधिक उपयुक्त होगा। ये दोनो विषय आगे चलकर एक भे ही गभित हो जाते हैं अत प्रारभ मे ही उनके बीच भ्रॉन्ति न होने देना ठीक होग। ये अध्ययन अभी अपनी प्रारभिक अवस्थामो मे है । हिन्दू, बौद्ध और जैन मूनिविज्ञान की परस्पर समानतामो पर लक्ष्य देना आवश्यक है, किन्तु बिना ठोस प्रमाण के सहसा ऐसे कथन कर देना कि अमुक बात, अमुक ने, अमुक से ग्रहण की है, उचित नहीं है ।