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________________ ( ०६ ) जैन धर्म का जो भाग रहा है, उसके व्यवस्थित ज्ञान के लिए अतीव उपयोगी सिद्ध हुए है। यह बात श्री बी० ए० सालतोर कृत मैडिवल जैनिज्म (बम्बई १६३८) तथा प्रो. एस. आर. शर्मा कृत 'जैनिज्म एड कर्णाटक कल्चर' (धारवाड १६४०) से भली प्रकार प्रमाणित हो जाती हैं। निजाम राज्य के पुरातत्त्व विभाग द्वारा प्रकाशित, कोप्पल से प्राप्त कन्नडी शिलालेखो पर लिखे गये निबध मे राज्य के अन्य स्थानों से भी प्राप्त, जैन अभिलेखो के महत्त्वपूर्ण उदाहरण दिये गये है । यह विभाग प्रसिद्ध पुराविद, गुलाम यजदानी की अध्यक्षता मे कार्य कर रहा था और आशा थी कि उसके द्वारा अन्य अनेक जैन शिलालेख शीघ्र ही प्रकाश मे पायेगे । देवगढ आदि स्थानो मे प्राप्त, तथा 'एपिग्रेफिका इ डिका' मे प्रकाशित शिलालेखो को देखने से पता चलता है कि अनेक जैन शिलालेख सरकार के पुरातत्त्व एव प्राच्यतत्त्व विभागो के भडार गृहो मे केवल इसीलिये व्यर्थ पडे हुए है कि राजनैतिक इतिहास की दृष्टि से वे प्रत्यक्ष उपयोगी नही जान पडते । इन समस्त अभिलेखो को तुरन्त प्रकाशित कर देना इन विभागो के लिए अवश्य ही कठिन कार्य था, विशेषत जबकि बृटिश सरकार का व्यवहार ऐसे सास्कृतिक विभागो की ओर विमाता सरीखा रहा है। अब स्वतत्र भारत मे, अपनी राष्ट्रीय सरकार से इस दिशा मे बहुत कुछ आशा है । यदि सरकार इस कार्य को स्वय हाथ मे न भी लेना चाहे तो भी प्राच्याध्ययन के हित मे यह अच्छा होगा कि वे लेख उन विद्वानो के सिपुर्द कर दिये जॉय, जो जैन पुराभिलेग्यो में दिलचस्पी रखते है तथा जो भडारकर प्राच्यविद्या. मदिर पूना, भारतीय विद्याभवन, बम्बई प्रभृति सस्थानो मे कार्य कर रहे है । इनमे से अनेक अभिलेख देश के राजनैतिक इतिहास की दृष्टि से भले ही महत्वपूर्ण न हो, किन्तु जैन साहित्यगत लेखको तथा स्थानो को चीन्हने और विभिन्न प्रदेशो से सबंधित जन सघ का इतिहास निर्माण करने मे, अवश्य ही उपयोगी कुजिये प्रदान कर सकते है । जिस प्रकार भडारकर ने कीलहान द्वारा सकलित शिलालेख सूची का सशोधन संवर्द्धन करके, उसे आधुनिक काल तक पूरण कर दिया, उसी प्रकार
SR No.010137
Book TitlePrakashit Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Jyoti Prasad Jain
PublisherJain Mitra Mandal
Publication Year1958
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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