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परम ज्योति महावीर
प्रभु के शरीर के मण्डन सा, 'भामण्डल' था अभिराम लगा। जो सभी दर्शकों को रत्नोंके दर्पण तुल्य ललाम लगा ।।
यों प्रभु के श्राटों प्रातिहार्यअवलोक स्वभाग्य सराहा था । सबने सतृष्ण प्रभु- दिव्यध्वनि,
को ही अब सुनना चाहा था । अतएव नरों के कोठे में, जा गये विराज नरेश तभी ।
औ' किया 'चेलना' ने वधुत्रों, के कोठे मध्य प्रवेश तभी ।
सब निनिमेष हो देख रहेथे प्रभु का वदन-सरोज अहो । जिस पर अत्यन्त झलकता था, तप-ब्रह्मचर्य का प्रोज अहो ।
सहसा सबके कल्याण हेतु, धर्मोपदेश प्रारम्भ हुवा । श्रावण कृष्णा प्रतिपदा दिवस, दिव्यध्वनि का प्रारम्भ हुवा ॥