________________
उन्नीसवाँ सर्ग
इस कारण ही तो तुम्हें हुवा ऐसी शङ्का का भान अहो । अतएव ज्ञान यह कर लो तो मिट जाये सब अशान अहो ।
वह वर्णन सिद्धात्मात्रों का, सकते न देख ये नेत्र जिन्हें । रखता है अपने यहाँ सदा सिद्धालय का ही क्षेत्र जिन्हें ।
रह सदा अनन्त समय, अनुभवकरते हैं सौरव्य अनन्त वहीं । युग युग तक उनके उस अक्षय-- सुख का होता है अन्त नहीं ।।
संसारी आत्मा को कदापि, मिलता उन सम आनन्द नहीं। कारण कि काट कर बन्धन यह हो पाया है स्वच्छन्द नहीं ।
मोहोदय से यह निज कौ--- का नाश नहीं कर पाता है। मिथ्यात्व-उदय से तत्वों पर विश्वास नहीं कर पाता है।